नाथ तुम अनुपम जाल बिछायो,
जगत को यहि मे भरमायो।
गरभवास मे करी प्रतिज्ञा,
यहाँ पर करि बिसरायो।
मातु पिता की गोदी खेलि के,
बाला पनहि बितायो ।
ज्वान भयो नारी घर आई,
तामे मन ललचायो।
सुंदर रूप देखि के भूल्यो,
जगत्पिता बिसरायो।
प्रौढ़ भए पर सुत औ नारी,
लई अंग लपटायो ।
आशा प्रबल भई मन भीतर,
अनगित पाप करायो।
पुण्य कार्य नहीं एकहु कीन्हे,
चारो पनहि बितायो ।
जब यमराज पहुंचि गए सिर पर,
हे! बाप बाप गुहरायो ।
नोट :- पनहि = अवस्था
(अप्रकाशित एवं मौलिक)
Comment
जी अशोक जी अनगित का मतलब अनगिनत ही है ।
आदरणीया अन्नपूर्णा जी सादर, सुन्दर शिक्षाप्रद रचना.सादर बधाई स्वीकारें "अनगित" का अर्थ स्पष्ट नहीं हो सका है कहीं "अगिनत" तो नहीं?
आप सबका हार्दिक आभार ।
मैया मोहि मैं नहीं माखन खायो के तर्ज पर आपका भजन आज के सन्दर्भ में अनुकूल है, सादर!
पुण्य कार्य नहीं एकहु कीन्हे,
चारो पनहि बितायो ।........
बेहद खूबसूरत और सीख देती हुई रचना .......बधाई आप को
बहुत बहुत बधाई इस सुन्दर रचना के लिए …………….. |
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