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नाथ तुमरी लीला अनुपम

नाथ तुम अनुपम जाल बिछायो,

जगत को यहि मे भरमायो।

गरभवास मे करी प्रतिज्ञा,

यहाँ पर करि बिसरायो।

 

मातु पिता की गोदी खेलि के,

बाला पनहि बितायो ।

ज्वान भयो नारी घर आई,

तामे मन ललचायो।

 

सुंदर रूप देखि के भूल्यो,

जगत्पिता बिसरायो।

प्रौढ़ भए पर सुत औ नारी,

लई अंग लपटायो ।

 

आशा प्रबल भई मन भीतर,

अनगित पाप करायो।

पुण्य कार्य नहीं एकहु कीन्हे,

चारो पनहि बितायो ।

 

जब यमराज पहुंचि गए सिर पर,

हे! बाप बाप गुहरायो ।

 

नोट :- पनहि = अवस्था

(अप्रकाशित एवं मौलिक)

 

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Comment by annapurna bajpai on June 3, 2013 at 12:59am

जी अशोक जी अनगित का मतलब अनगिनत ही है ।

Comment by Ashok Kumar Raktale on June 3, 2013 at 12:18am

 

Comment by Ashok Kumar Raktale on June 3, 2013 at 12:18am

आदरणीया अन्नपूर्णा जी सादर, सुन्दर शिक्षाप्रद रचना.सादर बधाई स्वीकारें "अनगित" का अर्थ स्पष्ट नहीं हो सका है  कहीं "अगिनत" तो नहीं? 

Comment by annapurna bajpai on May 29, 2013 at 12:18am

आप सबका हार्दिक आभार ।

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on May 28, 2013 at 5:31am

मैया मोहि मैं नहीं माखन खायो के तर्ज पर आपका भजन आज के सन्दर्भ में अनुकूल है, सादर! 

Comment by Meena Pathak on May 27, 2013 at 4:34pm

पुण्य कार्य नहीं एकहु कीन्हे,

चारो पनहि बितायो ।........

 

बेहद खूबसूरत और सीख देती हुई रचना .......बधाई आप को 

Comment by Shyam Narain Verma on May 27, 2013 at 11:27am
बहुत बहुत बधाई इस सुन्दर रचना के लिए ……………..

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