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शंक निशंक त्रिशंकु मन,

मचि रही उथल पुथल,

जीत हार का फेर करत

उठा पटक यह त्रिशंकु मन।

 

अंतर्द्वंद  हिंडोल के बीच,

कछु न सोच विचार होए,

गगन औ धरा के बीच,

हिंडोले यह त्रिशंकु मन ।

 

अप्रकाशित एवं मौलिक

Views: 342

Comment

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Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on June 2, 2013 at 12:22pm
अति सुन्दर रचना ...आदरणीया अन्नपूर्णा जी....शुभकामनायें

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 1, 2013 at 10:33pm

अंतर्द्वंद्व की अभिव्यक्ति दुरूह तो है ही.

Comment by coontee mukerji on May 31, 2013 at 12:43pm

बहुत सुंदर , इस त्रिशंकु मन पर जितना भी लिखा जाए कम है . अन्नपूर्णा जी ,

सादर

कुंती .

Comment by Shyam Narain Verma on May 31, 2013 at 9:58am
बहुत बहुत बधाई इस सुन्दर रचना के लिए ……………..

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