तपते रेगिस्तान मे पानी की बूंद जैसी,
उफनती नदी के बीच कुशल खिवैया सी ।
ससुराल मे तरसती बहू के लिए माँ सी ,
तमाम गलतियों के बीच समाधान सी ।
गिले शिकवे उलाहनों के बीच दुलार सी,
जीवन की डगर के घावों पर मरहम सी।
गृह वाटिका के पुष्पों की कुशल रक्षिका सी,
आँचल मे प्यार दुलार ममता की मूरत सी ।
होती ऐसी माँ के जैसी सास,
जिसका आंचल देता छाँव।
समझ न आती जिसकी बात ,
अनबूझ पहेली सी होती सास।
- अन्नपूर्णा बाजपेई
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय गुरू जी संभवतः असुरक्षा की भावना ने आज ये रूप दिखाया है वैसे मै इतनी समर्थ तो नहीं कि किसी को परिभाषित कर सकूँ । सादर ।
//अनबूझ पहेली सी होती सास//
अच्छा, एक प्रश्न मन में आया है. अनुसूया की बहुओं से पूछा गया कभी कि वे कैसी सास थीं ! सीता को गार्हस्त्य का मूल बताने वाली उच्च महिला थीं. एक समय तथाकथित शोषित अधिकारिणी होते अक्सर नयी तथाकथित शोषितों को शोषक क्यों दिखने लगती हैं ? मेरे कहे में तथ्य नहीं तंज़ देखियेगा.. :-))))
सादर
भाई राम शिरोमणि जी बहुत आभार आपका ।
आदरणीया अन्नपूर्णा जी, सुन्दर रचना के लिए हार्दिक बधाई////
आप सभी आदरणीय बंधु जनों का हार्दिक आभार ।
बहुत खूब अन्नपूर्णा जी
बहुत बहुत सुदर
जी बहुत धन्यवाद अप सभी का ।
होती ऐसी माँ के जैसी सास,
जिसका आंचल देता छाँव।
समझ न आती जिसकी बात ,
अनबूझ पहेली सी होती सास।...........काश ! बहुएँ की सोच भी ऐसा हो? /सादर / कुंती
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