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एक घनाक्षरी मेरा भी -----

सूर्य की गभस्तियों से अग्नि वृष्टि हो रही है और ये शरीर स्वेद से न पाए त्राण है
प्राण वायु का अभाव खलने लगा है मित्र आज व्यग्र नासिका व हीन शक्ति घ्राण है
ये प्रतीत हो रहा कि लक्ष्य मानवी शरीर ही बना हुआ प्रयुक्त वामनो का बाण है
हे मनुष्य जाग देख स्वार्थ लोभ का प्रसार प्रकृति से खेलने की वृत्ति का प्रमाण है
रचनाकार
डॉ आशुतोष वाजपेयी
ज्योतिषाचार्य
लखनऊ
सर्वथा नूतन मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Dr Ashutosh Vajpeyee on June 13, 2013 at 9:48am

आभार जवाहर जी 

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on June 13, 2013 at 7:47am

बहुत ही सुंदर! हार्दिक अभिनन्दन!

Comment by Dr Ashutosh Vajpeyee on June 12, 2013 at 5:29pm

प्रभूत आभार सौरभ जी


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 12, 2013 at 5:01pm

प्रकृति से खेलना कितना महँगा हो सकता है इसका प्रमाण वास्तव में आज के वातावरण की दशा है. ग्रीष्म का सटीक वर्णन करती इस घनाक्षरी के लिए आपको सादर धन्यवाद व हार्दिक बधाइयाँ, आदरणीय आशुतोषजी.

सादर

Comment by Dr Ashutosh Vajpeyee on June 12, 2013 at 9:31am

बहुत आभार ब्रजेश जी 

Comment by बृजेश नीरज on June 12, 2013 at 7:41am

सच कहा आपने आदरणीय आशुतोष जी यह भीषण ताप प्रकृति से ही खेलने का प्रमाण है। बहुत ही सुन्दर! मेरी बधाई स्वीकारें!

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