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प्रलय या आपदा [आल्हा छंद ] प्रथम प्रयास

रूद्र रूप ले आए भोले ,मचा प्रलय से हाहाकार
मानव आया कुदरत आड़े,उजड़ गए लाखों परिवार
यहाँ जिन्दगी चहका करती,अब हैं लाशों के अम्बार
दोहन लेकर आया विपदा,हम मानस ही जिम्मेवार


उमड़ घुमड़ बादल जो आए,छम छम कर आई बरसात
ध्वस्त हुए सब मंदिर मस्जिद,दिन में ही हो आई रात
कुदरत हुई खून की प्यासी, प्रलय मचा है चारों ओर
कुपित शिवा जलमग्न हो गए,आया है कलयुग घनघोर

      ..............मौलिक व अप्रकाशित...............

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Comment

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Comment by Sarita Bhatia on July 2, 2013 at 1:13pm

सभी मित्रों का हार्दिक धन्यवाद 

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on June 30, 2013 at 8:53pm

सुन्दर और सामयिक आल्ल्हा छंद रचना के लिए हार्दिक बधाई आदरणीया सरिता भाटिया जी 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on June 30, 2013 at 2:10am

आदरणीया,समयोचित, सुंदर प्रस्तुति. बधाई. सादर

Comment by विजय मिश्र on June 29, 2013 at 4:53pm
प्रकृति स्वेम संतुलन बनाती है और उसे प्रवंचित या उपेक्षित करने का भ्रम कोई न पाले.बचपन में आल्हा सुनने के सुअवसर प्राप्त थे और आज मैंने आपके छंदों को देख सस्वर पाठ का लोभ संवरण न कर सका . विनाश और प्रबरता के वर्णन के लिए इस छंद का चयन उपयुक्त है . साधुवाद सरिताजी .
Comment by Shyam Narain Verma on June 29, 2013 at 4:36pm

बहुत ही सुंदर व मर्मस्पर्शी रचना..................

Comment by vijay nikore on June 29, 2013 at 7:35am

आदरणीया सरिता जी,

 

‘बेटी’ शब्द के प्रयोग से in turn मुझको मान देने के लिए आपका धन्यवाद।

 

सुखी रहो।

विजय निकोर

Comment by Sarita Bhatia on June 28, 2013 at 6:46pm

आदरणीय विजय सर ऐसा कहकर आप मुझे शर्मिंदा कर रहे हैं 

बेटी को किसी भी नाम से पुकारो चलेगा 

मैं तो सिर्फ बता रही थी कृपया ऐसा न ही सोचें न ही कहें 

Comment by vijay nikore on June 28, 2013 at 6:39pm

आदरणीया सरिता जी:

 

मुझसे भूल हुई, मैं शर्मिन्दा हूँ, क्षमाप्रार्थी हूँ।

कृपया क्षमा करें।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by Sarita Bhatia on June 28, 2013 at 6:20pm

basant nema sir aapne thik kaha jaisa beej bona hai vaisa hi fal pana hai 

Comment by Sarita Bhatia on June 28, 2013 at 6:19pm

aadarniye vijay nikore ji mera naam sarita hai 

hardik abhaar 

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