रूद्र रूप ले आए भोले ,मचा प्रलय से हाहाकार
मानव आया कुदरत आड़े,उजड़ गए लाखों परिवार
यहाँ जिन्दगी चहका करती,अब हैं लाशों के अम्बार
दोहन लेकर आया विपदा,हम मानस ही जिम्मेवार
उमड़ घुमड़ बादल जो आए,छम छम कर आई बरसात
ध्वस्त हुए सब मंदिर मस्जिद,दिन में ही हो आई रात
कुदरत हुई खून की प्यासी, प्रलय मचा है चारों ओर
कुपित शिवा जलमग्न हो गए,आया है कलयुग घनघोर
..............मौलिक व अप्रकाशित...............
Comment
सभी मित्रों का हार्दिक धन्यवाद
सुन्दर और सामयिक आल्ल्हा छंद रचना के लिए हार्दिक बधाई आदरणीया सरिता भाटिया जी
आदरणीया,समयोचित, सुंदर प्रस्तुति. बधाई. सादर
बहुत ही सुंदर व मर्मस्पर्शी रचना..................
आदरणीया सरिता जी,
‘बेटी’ शब्द के प्रयोग से in turn मुझको मान देने के लिए आपका धन्यवाद।
सुखी रहो।
विजय निकोर
आदरणीय विजय सर ऐसा कहकर आप मुझे शर्मिंदा कर रहे हैं
बेटी को किसी भी नाम से पुकारो चलेगा
मैं तो सिर्फ बता रही थी कृपया ऐसा न ही सोचें न ही कहें
आदरणीया सरिता जी:
मुझसे भूल हुई, मैं शर्मिन्दा हूँ, क्षमाप्रार्थी हूँ।
कृपया क्षमा करें।
सादर,
विजय निकोर
basant nema sir aapne thik kaha jaisa beej bona hai vaisa hi fal pana hai
aadarniye vijay nikore ji mera naam sarita hai
hardik abhaar
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