जल बिन सब बेजान हैं ,धरती कहे पुकार
बरखा देखो आ गई ,लेकर सुखद फुहार
घाव धरा के भर गए , ग्रीष्म हो गया लुप्त
जल फैला चहुँ ओर है ,धरा हो गई तृप्त
बरखा लेकर आ गई ,राहत और सुकून
दिल्ली भी अब बन गई ,देख देहरादून
.......मौलिक व अप्रकाशित ........
Comment
आदरणीया सरिता जी, मैं आपकी कोशिशों और सकारात्मकता के आगे नत हूँ.
आपने कहे का और सुझाए गये विन्दुओं का सार्थक मान रखा है, मैं आभारी हूँ. रचनाकर्म संप्रेषणीयता में शुद्धता की मांग करता है. यह शुद्धता भाव के अनुसार, शब्द चयन के अनुसार, व्याकरण के अनुसार, प्रयुक्त छंद विधान के अनुसार तथा संप्रेषणीयता के अनुसार होनी चाहिये. कोई रचनाकार इसी लिहाज से प्रयास करे तो रचना अवश्य पाठकों के हृदय और मस्तिष्क दोनों को संतुष्ट करेगी. मात्र हृदय को छूने वाली या मात्र मस्तिष्क को संतुष्ट करने वाली एकांगी रचनाएँ संपूर्ण और व्यवस्थित नहीं होतीं.
आपका पुनः आभार. सतत और दीर्घकालीन प्रयत्न करें
शुभम
Saurabh Pandey sir maine ismein sudhar kar diya hai kripya janch len
प्रयास पर शुभकामनाएँ आदरणीया
सब के साथ हैं होना था न कि है. तथा कहित को आसानी से कहे कहा जा सकता था.
दूसरे, लिंग दोष पर ध्यान दें, आदरणीया. ग्रीष्म की संज्ञा पुल्लिंग है तो दिल्ली सदा रूप बदलती रही है. और.. . जल नहीं घन छाता है.
बहरहाल इस प्रयास और प्रस्तुति पर बधाई.
सादर
बहुत सुंदर . साधुवाद
आदरणीया सरिता जी,सुंदर//////
दोहों पर प्रयास हेतु हार्दिक बधाई स्वीकारें आदरणीया सरिता जी प्रयास करते रहिये, जब ओ बी ओ पर आ ही गईं हैं तो फिकर नॉट. धीरे धीरे सब सध जायेगा.
आभार आदरणीया-
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