नियमों की सरहदें
उलझी हुई मानवीय अपेक्षाओं से अनछुआ
तुम्हारे लिए मेरा काल्पनिक अलोकित स्नेह
किसी सांचे में ढला हुआ नहीं था,
और न हीं वह पिंजरे में बंद पक्षी-सा
कभी सीमित या संकुचित था लगा।
एक ही वृक्ष पर बैठे हुए हम
दो उन्मुक्त पक्षिओं-से थे,
कभी तुम चली आई उड़ कर पास मेरे,
और मैं गद-गद हो उठा, और कभी मैं
हर्षोन्माद में आ बैठा डाल पर तुम्हारी।
शैतान हँसी की हल्की-सी फुहार लिए,
तुमने मेरे लिए अपनी आँखें बिछा दीं
और हम दोनों को लगा कि हमने
कल्पनातीत उस स्वर्णिम पल में
रिश्तों के नियमों की सरहदें लांघ ली...
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- विजय निकोर
२५ जून, २०१३
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय अरुण जी:
कविता की सराहना के लिई आपका शत-शत आभार।
सादर,
विजय निकोर
आदरणीय राजेश जी:
//बहुत ही डूब के लिखी गई रचना है, ऐसा प्रतीत होता है कि सारा कुछ आंखों के सामने घटित हो रहा है,//
इन मनोहारी शब्दों से रचना के अनुमोदन के लिए मैं आपका आभारी हूँ।
सादर,
विजय निकोर
आदरणीया कुंती जी:
इस रचना को सराहना प्रदान करने के लिए मेरा हार्दिक आभार।
सादर,
विजय निकोर
आदरणीय सौरभ भाई:
आपका अतिशय आभार , बार-बार।
सादर,
विजय निकोर
आदरणीय बृजेश जी:
// वाह! बहुत सुन्दर! सुन्दरता से भाव पिरोए आपने! //
यह कह कर आपने मेरी रचना को सार्थक कर दिया है। आभारी हूँ।
सादर,
विजय निकोर
वाह! बहुत सुन्दर! सुन्दरता से भाव पिरोए आपने!
हार्दिक बधाई!
पल विशेष की पुलकन को प्रबुद्ध पंक्तियाँ प्राप्त हुई हैं.
शुभ-शुभ
बहुत सुंदर रचना .
एक ही वृक्ष पर बैठे हुए हम
दो उन्मुक्त पक्षिओं-से थे,
कभी तुम चली आई उड़ कर पास मेरे,
और मैं गद-गद हो उठा, और कभी मैं
हर्षोन्माद में आ बैठा डाल पर तुम्हारी।
प्रेम ही आनंद,
प्रेम ही चिरंतन,
सादर
कुंती
बहुत ही डूब के लिखी गई रचना है, ऐसा प्रतीत होता है कि सारा कुछ आंखों के सामने घटित हो रहा है, सादर
आदरणीय जितेन्द्र जी:
//अति प्रेम में रिश्तों के नियमों की हद लांघ जाते है, यह वास्तविकता है! बहुत खूबसूरत प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई//
आपकी सराहना मन को आनंदानुभुति से स्पंदित कर गई। हार्दिक आभार, आदरणीय।
सादर,
विजय निकोर
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