वज्न 2122 2122 2122 212
बह्र ए रमल मुसम्मन महज़ूफ
लमहा-लमहा याद कोई दिल को आने क्यूँ लगे
रफ़्ता-रफ़्ता वर्क़े-माज़ी वो हटाने क्यूँ लगे
इस मरासिम लफ़्ज़ से ही आजिज़ी होने लगी
फ़ासिले हम को रिफ़ाकत में रुलाने क्यूँ लगे
बेगुमाँ भाग आए थे जिनसे निगाहें हम बचा
ढूँढ कर वो बेतलब ग़म फ़िर सताने क्यूँ लगे
मुद्दतों से यूँ दबा जिसको रखा था दर्द वो
नज़्म करने में हमें इतने ज़माने क्यूँ लगे
ग़मगुसारों से हम अपनी दास्तां कैसे कहें
दिल शिकस्ता आपको ऐसे दिखाने क्यूँ लगे
मिलने का वादा किया हो याद पड़ता ही नही
बेसबब वो रास्ते हम को बुलाने क्यूँ लगे
तीरगी ही जब मुकद्दर बन गई, ऐ ज़िन्दगी!
ये उजाले तेरे जल्वों के जलाने क्यूँ लगे
वर्क़े- माज़ी= अतीत के पन्ने. मरासिम= रिश्ते, मेलजोल. आजिज़ी= उकताहट. रिफ़ाकत= दोस्ती. बेगुमाँ= सहसा
बेतलब= बिन बुलाए. दिल शिकस्ता= टूटा. दिल तीरगी= अंधेरा
- मौलिक अप्रकाशित(संशोधित )
Comment
राज दी आपकी इस हौसला अफज़ाई के लिए आभार व्यक्त करता हूँ
इस मरासिम लफ़्ज़ से ही आजिज़ी होने लगी
फ़ासिले हम को रिफ़ाकत में रुलाने क्यूँ लगे
पूरी ग़ज़ल ही बहुत शानदार है दाद कबूलें शिज्जू जी इस एक शेर ने तो ख़ास प्रभाव डाला है
तीरगी ही जब मुकद्दर बन गई, ऐ ज़िन्दगी!
ये उजाले उन पलों के यूँ जलाने क्यूँ लगे
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