ग़ज़ल लिखने का एक प्रयास और किया है मैने, प्रकृति की सुंदरता का हमेशा से ही कायल रहा हूँ इसलिए मेरी रचना प्रकृति के आस पास ही रहती है.
वज्न -1222 1222 1222
हजज मुसद्दस सालिम
सुहाने ख्वाब से मुझको उठा गुज़री
वो लहराती हुई बादे सबा गुज़री
दिखी थी पैरहन वो धूप की लेकर
कभी शबनम की वो ओढ़े कबा गुज़री
फ़िज़ा सरशार भीगी सी ज़मीं भी है
नमी ज़ुल्फ़ों की है या फिर घटा गुज़री
कभी सरगोशियों से वो मुझे चौंका
हसीं मुस्कान होंठों में दबा गुज़री
भुला सकता नहीं वो लमहा जिसमें ये
तसव्वुर की लहर मुझको डुबा गुज़री
उफ़क के छोर तक है उसका ही जलवा
सरापा दिलकशी से वो नहा गुज़री
-मौलिक अप्रकाशित*
*संशोधित
Comment
बहुत खूब कही लाजवाब है शिज्जू जी
वाह वा भाई जी बहुत शानदार
क्या कहने ... मज़ा आ गया
पोस्ट पर देर से आ सका इसके लिए अफ़सोस है
आपकी ग़ज़ल भली लगती है भाईजी.
जो त्रुटि थी उसपर बात हो गयी है. प्रयासरत रहें
शुभेच्छाएँ
आपका बहुत बहुत धन्यवाद
सही कहा संदीप जी आपने, टाइपिंग त्रुटि हो गयी दर अस्ल ''वो'' नही लिखा
"कभी शबनम की वो ओढ़े कबा गुज़री" ये ऐसा है
bahut sundar aadarneey waah waah waah
daad kubool karen
कभी शबनम की wo ओढ़े कबा गुज़री is misre ko ek baar dekh len ...........
बहुत बहुत बधाई इस सुन्दर रचना के लिए …………….. |
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