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प्रकृति का प्रतिफल

फट रहा बादल कही 

तो कहीं उठ रहा तूफ़ान है, 

इतिहास में दर्ज होने को

बढ़ रहा इन्सान है..

था खुदा का घर वहां

बरसा  था कहर जहाँ,  

लग रहा खुदा भी नया 

कोई गढ़ रहा जहान  है..

हो रहा हिसाब अब 

कुदरत दे रही जवाब अब,

तूने जो किये अब तक

कुदरत से सवाल थे..

 

जो सोंच खुश "मैं बच गया"

उसे 'पवन बड्डन' का पैगाम है,

करना है तो प्राश्चित कर

तेरे सर भी आसमान है............................................... 

"मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment

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Comment by Dr Ashutosh Mishra on July 12, 2013 at 9:26am

बेहतरीन ...एक बढ़िया सन्देश दिया है आपने ..सादर 

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on July 10, 2013 at 8:38pm

आ0 बड्डन भाई जी,  हादशा!  अकथ कहानी है।  दर्दनाक और असहनीय, इसका कोई समय नहीं होता।  हम सभी इक कायनात में सिमटे और सशंकित हैं क्योंकि शामियाना छिद्रो से पटा पड़ा अति जर्जर है।  बधाई स्वीकारें।  सादर,

Comment by yatindra pandey on July 10, 2013 at 8:36pm

behad sundar

 

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