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जब भी देखता था रात को जमी से चाँद को  
यही सोंचता था,कि
अगर चाँद  इतनी  दूर से  इतना  खूबसूरत, इतना  चमकदार  नजर  आता  है
तो पास जाकर क्या नजारा होगा ? 
यही सोंचकर एक दिन चाँद पर जा पहुंचा
पर  वहां ना वो खूबसूरती नजर आई ना वो चमक
कुछ नजर आया तो बस चाँद के गाल में गड्ढे
और  चाँद  जला  जला  सा....... 
तब  समझ  आया  कि ,
मै    चाँद  कि  जिस  चमक को  चाँद  की खूबसूरती  समझता  था
वो  उसकी  चमक  नहीं थी 
कमबख्त  जलाता  था खुद  को  रातों  में
हम  इंसानों  कि  रातों  को  रोशन  करने  के  लिए
और  हम  लालची  इंसान चले आये है
लबराती  नजरो के साथ 
उसे दिन में भी जलाने के लिए....
जब भी  देखता  था रात को जमी से चाँद को ............

"मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on July 17, 2013 at 8:27am

आ0 बड्डन भाई जी,  वाह!  बहुत खूब सूरत प्रस्तुति।  हार्दिक बधाई स्वीकारें।  सादर,

कृपया ध्यान दे...

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