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अनाद्यानंत  आकाश में तैरते 

पारदर्शी गोलाकार 
अविरल निर्विकार 
असंख्य सूक्ष्म कण ...
स्पर्श कर सम्पूर्ण सृष्टि 
चले आते हैं मेरे पास
प्रति क्षण -
मेरे संस्पर्श को ...
और लिए जाते हैं, गुपचुप 
मुझमे से 
मेरा ही सुरभित नेह अंश,
पूरे ब्रह्माण्ड में बिखराने ...
और मैं 
पारदर्शी निगाहों में प्रेमाश्रु लिए 
एकटक निहारती हूँ 
प्रकृति की सम्पूर्णता को,
अक्सर करती
अनकही अनसुनी अनगिन बातें ...

 

मौलिक और अप्रकाशित  

डॉ० प्राची

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on July 13, 2013 at 1:33pm

आदरणीय विजय जी 

रचना को आपने जो शब्द दिख रहे हैं उस परिधि में समझा...आपकी आभारी हूँ.

इतना ज़रूर कहूँगी कि जिन सामान्यतया अदृष्ट सूक्ष्मकणों के माध्यम से प्रकृति के कण कण से हमारा एकीकार होता है, उनका बोध होने पर सृष्टि का कोइ भी तत्व अपने से भिन्न नहीं लगता....  तब हर कण दृश्य अदृश्य स्थूल सूक्ष्म सबमें एकत्व को अंगीकार कर जो प्रेम निस्सृत होता है वह स्वयं ही प्रकृति के हर अवयव के साथ एक अनकहा अनसुना सम्बन्ध जोड़ देता है..जिसे संवाद के लिए मन में विचारों की भी ज़रूरत नहीं..वह विचारशून्यता ही संवाद से बढ़ कर होती है................................इन्ही सनातनी भावों को अभिव्यक्त करने की चेष्टा की गयी है इस रचना में.

सादर.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on July 13, 2013 at 1:18pm

प्रस्तुति पसंद करने के लिए आभार आ० केवल प्रसाद जी 

Comment by vijay nikore on July 13, 2013 at 10:00am

//

और लिए जाते हैं, गुपचुप 
मुझमे से 
मेरा ही सुरभित नेह अंश,
पूरे ब्रह्माण्ड में बिखराने ...
और मैं 
पारदर्शी निगाहों में प्रेमाश्रु लिए 
एकटक निहारती हूँ 
प्रकृति की सम्पूर्णता को,//
 
मैंने इन कोमल सुन्दर भावों से यह अभिप्राय लिया....
 
... कि जब हम अपना सुवासित स्नेह सँसार में बिखेरते हैं, सँसार के साथ बाँटते हैं तो हमें स्वयं को सारा ब्रह्माण्ड मुकम्मल लगता है , प्रकृति सम्पूर्ण लगती है, और इस हर्षोन्माद में हम प्रकृति के सौंदर्य को देख स्वय़ं से बातें करते हैं, कुछ गुनगुनाते रहते हैं।
 
आपका भी इस कविता में इस अभिव्यक्ति से यही अभिप्राय था क्या, आदरणीया?
सादर,
विजय
 
 
Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on July 12, 2013 at 10:52pm

आ0 प्राची मैम जी,  वाह! अज्ञेय चैतन्य का सजीव चित्रण। अतिसुन्दर एवं लाजवाब प्रस्तुति।  हार्दिक बधाई स्वीकारें।  सादर,


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on July 12, 2013 at 10:47pm

//प्रकृति के साथ मन के इस भावपूर्ण रिश्ते की कल्पना ने मन को नयी सोच दे दी है //

यह पंक्ति लिख आपने इस रचना के होने के प्रयोजन को सार्थकता प्रदान की है आदरणीय डी पी माथुर जी 

हृदय से आभार 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on July 12, 2013 at 10:45pm

सम्पूर्ण सृष्टि के लिए निस्सृत प्रेम भाव को संस्पर्श करने पर पृथ्वी सच में नया ग्रह ही लगती है.. :)))

हार्दिक धन्यवाद प्रिय राम जी 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on July 12, 2013 at 10:43pm

हृदय की सूक्ष्म अतिसूक्ष्म अनुभूति कह, रचना की तह को स्पर्श करने के लिए मैं आपकी आभार हूँ आ० पंकज त्रिवेदी जी 

सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on July 12, 2013 at 10:41pm

रचना आपको पसंद आयी आपका आभार आ० लक्ष्मण जी 

सादर 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on July 12, 2013 at 10:41pm

रचना पर आपकी सराहना के लिए ह्रदय से धन्यवाद आ० विजय जी 

सादर.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on July 12, 2013 at 10:40pm

अनुमोदन के लिए धन्यवाद आ० सुमित नैथानी जी 

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