अनाद्यानंत आकाश में तैरते
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
आदरणीय विजय जी
रचना को आपने जो शब्द दिख रहे हैं उस परिधि में समझा...आपकी आभारी हूँ.
इतना ज़रूर कहूँगी कि जिन सामान्यतया अदृष्ट सूक्ष्मकणों के माध्यम से प्रकृति के कण कण से हमारा एकीकार होता है, उनका बोध होने पर सृष्टि का कोइ भी तत्व अपने से भिन्न नहीं लगता.... तब हर कण दृश्य अदृश्य स्थूल सूक्ष्म सबमें एकत्व को अंगीकार कर जो प्रेम निस्सृत होता है वह स्वयं ही प्रकृति के हर अवयव के साथ एक अनकहा अनसुना सम्बन्ध जोड़ देता है..जिसे संवाद के लिए मन में विचारों की भी ज़रूरत नहीं..वह विचारशून्यता ही संवाद से बढ़ कर होती है................................इन्ही सनातनी भावों को अभिव्यक्त करने की चेष्टा की गयी है इस रचना में.
सादर.
प्रस्तुति पसंद करने के लिए आभार आ० केवल प्रसाद जी
//
आ0 प्राची मैम जी, वाह! अज्ञेय चैतन्य का सजीव चित्रण। अतिसुन्दर एवं लाजवाब प्रस्तुति। हार्दिक बधाई स्वीकारें। सादर,
//प्रकृति के साथ मन के इस भावपूर्ण रिश्ते की कल्पना ने मन को नयी सोच दे दी है //
यह पंक्ति लिख आपने इस रचना के होने के प्रयोजन को सार्थकता प्रदान की है आदरणीय डी पी माथुर जी
हृदय से आभार
सम्पूर्ण सृष्टि के लिए निस्सृत प्रेम भाव को संस्पर्श करने पर पृथ्वी सच में नया ग्रह ही लगती है.. :)))
हार्दिक धन्यवाद प्रिय राम जी
हृदय की सूक्ष्म अतिसूक्ष्म अनुभूति कह, रचना की तह को स्पर्श करने के लिए मैं आपकी आभार हूँ आ० पंकज त्रिवेदी जी
सादर
रचना आपको पसंद आयी आपका आभार आ० लक्ष्मण जी
सादर
रचना पर आपकी सराहना के लिए ह्रदय से धन्यवाद आ० विजय जी
सादर.
अनुमोदन के लिए धन्यवाद आ० सुमित नैथानी जी
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