है ज़मी पर शोर कितना , आसमाँ खामोश है ।
मन में लाखों हलचलें हैं , आत्मा खामोश है ।
ना कभी करता सवाल , ना कभी देता जवाब ,
हमको देकर ज़िन्दगी , परमात्मा खामोश है ।
आदमीयत सड़ रही , लुट रहा बागे जहाँ ,
पर कहीं चुप चाप बैठा , बागबाँ खामोश है ।
चाहतें दुनिया की ज्यादा , देर तक चलती नहीं,
ताज़ की बरबादियों पर , शाहजहाँ खामोश है ।
जो हकीकत थे कभी, बनकर फ़साने रह गए ,
वक्त के हाथों लुटा , हर कारवाँ खामोश है ।
देके अपनी ज़िन्दगी, हमने बनाये थे कभी,
आज मय्यत पर मेरी , वो हर मकाँ खामोश है ।
देवता जो थे गुनाहों , के सफ़ाई दे रहे ,
उसकी महफ़िल में खडा, हर बेगुनाह खामोश है ।
व्यापार चलते हैं यहाँ , बाज़ार चलते हैं यहाँ ,
पर दिलों में प्यार की, हर दास्ताँ खामोश है ।
मौलिक व अप्रकाशित
नीरज
Comment
आदरणीय वीनस जी
कोशिश कर रहा ग़ज़ल की राह पर सभल कर चलने की ।
अभी तो ग़ज़ल कक्षा भी ज्वाइन कर ली है ........
आगे के प्रयास में ध्यान रखने की कोशिश करूँगा ।
बहुत बहुत आभार ।
नीरज जी,
किसी रचना को ग़ज़ल होने के लिए रचना में मूल रूप से जिन तत्वों का होना अनिवार्य होता है उनके प्रति आपको और आग्रही होना होगा ...
शुभकामनाएं
अभिषेक भाई बहुत बहुत आभार ।
आदरणीय आशुतोष जी तहे दिल से शुक्रिया ।
केतन परमार जी बहुत बहुत आभार
आदरणीय राजेश जी
आपके सुझावों के लिए बहुत बहुत अनुग्रह ....
मै पूरी कोशिश करूंगा कि ऐसा कर पाऊं ।
अनुपमा जी बहुत बहुत धन्यवाद ।
अमन कुमार जी बहुत बहुत शुक्रिया ।
बहुत बहुत आभार केवल प्रसाद जी ।
बहुत बहुत अनुग्रह कुन्ती जी ।
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