एक सुनहरी आभा सी छायी थी मन पर
मैं भी निकला चाँद सितारे टांके तन पर
इतने में ही आँधी आयी, सब फूस उड़ा
सब पत्ते, फूल, कली, पेड़ों से झड़ा, उड़ा
धूल उड़ी, तन पर, मन पर गहरी वह छाई
मन अकुलाया, व्याकुल हो आँखें भर आई
सरपट भागें इधर उधर गुबार के घोड़े
जैसे चित के बेलगाम से अंधे घोड़े
कुछ न दिखता पार, यहाँ अब दृष्टि भहराई
कैसा अजब था खेल, थी कितनी गहराई
छप्पर, बाग, बगीचे, सब थे सहमे बिदके
मैं भी देखूँ इधर उधर सब ही थे दुबके
दौर थमा, धूल जमी, आभा वापस आई
लेकिन अब भी मन है, आँख नहीं खुल पाई
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीया वंदना जी आपका हार्दिक आभार! इस विधा को जितना भी जान समझ सका हूं वह आपके सहयोग के बिना शायद सम्भव नहीं होता। आपसे इस विधा पर हुई चर्चाएं इसे समझने में बहुत लाभकारी रहीं। आपने अन्य भाषाओं में इस विधा पर हुए कार्य का जिस तरह से अध्ययन किया है। मैं चाहूंगा कि आप वह जानकारियां हम सबसे साझा करें इसलिए मेरा विनम्र अनुरोध है कि आप भी इस विधा पर एक लेख उपलब्ध कराएं।
सादर!
बहुत भावपूर्ण रचना के लिए बधाई लीजिये आदरणीय बृजेश जी!
सुधीजनों का निवेदन सानेट पर लेख होना चाहिए, अवश्यमेव ही पूर्ण करिये, ताकि सम्पूर्ण जानकारी मिले,
सादर !!
आदरणीया अन्नपूर्णा जी आपका हार्दिक आभार!
आदरणीय अरुन भाई आपका हार्दिक आभार!
आदरणीय जितेन्द्र जी आपका बहुत आभार!
वाह !
बहुत बढ़िया !
लगता है कि अपना ही अनुभव है !
कुछ न दिखता पार, यहाँ अब दृष्टि भहराई
कैसा अजब था खेल, थी कितनी गहराई...........यह पंक्ति बहुत सुंदर है,
आदरणीय बृजेश जी, गहराई ली हुयी रचना पर, हार्दिक बधाई
आदरणीय राणा प्रताप जी आपका हार्दिक आभार! आपके शब्दों ने मेरे प्रयास को सार्थकता प्रदान की। आपके आदेशानुसार इस विधा पर लेख तैयार करने का प्रयास करता हूँ।
सादर!
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