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दिया द्वार पर जूझ रहा

कितने कितने सूरज चमके

पर अँधियारा शेष रहा

तेरे मेरे मन के अंदर

इक संशय फल फूल रहा।।

 

सरपत के ढेरों झाड़ उगे

तन छू ले कट जाता है

इन बबूल के काँटों से भी

भीतर तक छिल जाता है

सावन की बौछारों में भी

मन उपवन सब सून रहा।।

 

तुम मिलते हो मुझको जैसे

इक गुजरी तरुणाई सी

भाव खिलें डाली पर कैसे

वह रूखी मुरझाई सी

साज संवार व्यर्थ रहा सब

धूल भरा यह रूप रहा।।

 

चिड़ियों ने भी पंख समेटे

हवा हुई अनजानी सी

नदिया की लहरें व्याकुल हैं

मछली कुछ अकुलानी सी

तूफानों के इस मौसम में

दिया द्वार पर जूझ रहा।।

-        बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by बृजेश नीरज on August 11, 2013 at 3:47pm

आदरणीय सौरभ जी आपका हार्दिक आभार! तुक और गेयता अभी समस्या हैं मेरी रचनाओं में। उनको दूर करने के लिए प्रयासरता हूं। आपने जो राह दिखायी है उस पर चलने का प्रयास करूंगा।
सादर!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 11, 2013 at 4:56am

बहुत गहरी भावदशा को शब्दसीमा देना जितना कठिन है उतना ही रोचक भी ! आपका प्रयास मोहक भी है और लालित्यपूर्ण भी.

तुम मिलते हो मुझको जैसे

इक गुजरी तरुणाई सी

भाव खिलें डाली पर कैसे

वह रूखी मुरझाई सी

भाई, इस बंद ने तो आपके कहे पर बस नत कर दिया है.

पूरा नवगीत ही पके घाव के बहने का तात्पर्य है.  यही संजीवनी भाव है. तभी कवि इस निहुरे हुए वातावरण में आशान्वित होता कह पाता है, दिया द्वार पर जूझ रहा.

वैसे, शब्दों से तुक मिलाने की भी परिपाटी है लेकिन वह बहुत अच्छी नहीं मानी जाती. तुक के शब्द के पहले की मात्राओं या शब्दांश को भी इसका हिस्सा बनाने का प्रयास रखें.  यथा,

कितने कितने सूरज चमके

पर अँधियारा शेष रहा

तेरे मेरे मन के अंदर

संशय ही का श्लेष रहा..

कुछ ऐसा.  अब आगे सभी तुक इसी तर्ज़ पर हों तो काव्य-प्रस्तुति में गहराई तो है ही शिल्पगत कसावट भी बनेगी. 

बहुत बहुत बधाइयाँ, बृजेश भाईजी, इस गंभीर चिंतन के लिए.

शुभेच्छाएँ

Comment by बृजेश नीरज on August 8, 2013 at 8:46pm

 //'नवगीत की नव्यता कभी समाप्त नहीं होती'// 

जब वीर छंद लिखते हैं तो उसमें अतिशयोक्ति होना आवश्यक माना जाता है। इस वाक्य को मैं उसी रूप में देखता हूं।
गीत नए बिम्बों, भाषा, शैली और छंद रूप लेकर आज नवगीत कहला रहा है।

Comment by Vindu Babu on August 7, 2013 at 7:19pm
ऐसा?
नये रंग-रूप क्या आदरणीय?
क्षमा करें महोदय मैंने नवगीत के सन्दर्भ में कहीं पढा था कि 'नवगीत की नव्यता कभी समाप्त नहीं होती' इसका मतलब स्पष्ट रूप से मैं समझ नही सकी,तभी ये प्रश्न किया।
सादर
Comment by बृजेश नीरज on August 7, 2013 at 6:53pm

आदरणीया वंदना जी आपका हार्दिक आभार!
कल का गीत ही अपने नए रंग और रूप के साथ आज का नवगीत है।

Comment by बृजेश नीरज on August 7, 2013 at 6:51pm

आदरणीय विजय जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by Vindu Babu on August 7, 2013 at 6:41pm
सुन्दर शिल्प में पिरोई हुई आपकी यह भावाभ्यक्ति बहुत अच्छी लगी आदरणीय।
एक बात पूछना चाहूंगी महोदय कि इसे गीत कहेंगे या नवगीत?
इस उन्नत रचना के लिए आपको ढेरों बधाइयां।
सादर
Comment by vijay nikore on August 7, 2013 at 10:20am

आदरणीय बृजेश जी:

 

//तुम मिलते हो मुझको जैसे

इक गुजरी तरुणाई सी

भाव खिलें डाली पर कैसे

वह रूखी मुरझाई सी//

अति सुन्दर अभिव्यक्ति ! शत-शत बधाई।

 

सादर,

विजय निकोर

 

 

Comment by बृजेश नीरज on August 6, 2013 at 10:35pm

आदरणीय राणा जी आपका हार्दिक आभार!
मैंने यह गीत गाकर नहीं लिखा इसलिए गलती होना स्वाभाविक था। आपके सुझावों से मैं सहमत हूं। आगे बेहतर कर सकूं, ऐसा प्रयास करूंगा।
सादर!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Rana Pratap Singh on August 6, 2013 at 10:13pm

आदरणीय बृजेश जी सुन्दर गीत के लिए बधाई कबूलिये|

एक दो सुझाव हैं पसंद आये तो रख लीजिये अन्यथा उड़ा दीजिये|

सरपत के ढेरों झाड़ उगे...यहाँ गेयता बाधित है इसे ऐसा करना कैसा रहेगा "झाड उगे सरपत के ढेरों"

साज संवार व्यर्थ रहा सब...यहाँ पर एक मात्रा कम है "व्यर्थ हुआ सब साज, संवरना" कैसा रहेगा|

सादर

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