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बार बार भीड़ में

ढूँढता हूँ

अपना चेहरा

 

चेहरा

जिसे पहचानता नहीं

 

दरअसल

मेरे पास आइना नहीं

पास है सिर्फ

स्पर्श हवा का

और कुछ ध्वनियाँ

 

इन्हीं के सहारे

टटोलता

बढ़ता जा रहा हूँ

 

अचानक पाता हूँ 

खड़ा खुद को

भीड़ में

अनजानी, चीखती भीड़ के

बीचों बीच

 

कोलाहल सा भर गया

भीतर तक

कोई ध्वनि सुनाई नहीं देती

शब्द टकराकर बिखरने लगे

 

मैं ढूँढता हूँ 

गुलाब की इन

बिखरी पंखुड़ियों पर जमा

ओस की बूँदों में

अक्स

लेकिन वहां है

सिर्फ अकेली टहनी

 

शायद इस घास पर हो

पद चिन्ह

पर यहाँ मिली

एक लकीर

जिस पर होकर

गुजर रही हैं चींटियां

 

चींटी, घास, पंखुड़ी, ओस

सब बेखबर हैं उस भीड़ से

जो घेरे है मुझे

भीतर बाहर

 

अब मैं पकड़ना चाहता हूँ

हवा को

लेकिन हवा गर्म है

और ध्रुवान्तों की

बर्फ पिघल रही है

नदी में पानी बढ़ रहा

और इस भीड़ में खोया

मैं चिंतित हूँ

अपने उस चेहरे के लिए

जिसे पहचानता नहीं

लेकिन जिसके

पिघलने का खतरा है।

                    -  बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by बृजेश नीरज on August 11, 2013 at 4:15pm

आदरणीय आपका और एडमिन साहब का बहुत बहुत आभार!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 11, 2013 at 4:10pm

लगता है ऐडमिन ने आपकी-हमारी गुहार सुन ली है. :-)))

Comment by बृजेश नीरज on August 11, 2013 at 3:55pm

आदरणीय सौरभ जी आपका हार्दिक आभार! आगे से व्याकरण की त्रुटियों के प्रति अधिक सचेत रहने का प्रयास करूंगा।

बूँद टाइप करते समय बहुवचन होने से रह गयी। जब ध्यान गया तो भी संशोधित नहीं किया कि एडमिन साहब को काहे नाहक तंग करूं। गलती यदि की है तो मैं ही डाँट सहूं।

सादर!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 11, 2013 at 5:27am

भाई, आप बहुत मेहनत करते हैं.  भटकते भी हैं.  कि, सटीक प्रतीकों के बुर्के में छिपा कर कविता को बचा ले जाते हैं. वैचारिकता का आततायीपन और आतंक कुछ कर नहीं पाता.

ऐसी भाव-दशा को अकेलेपन से जन्मा और अभिव्यक्त हुआ  भय नहीं कह, इसे उस भय से सचेत हो कवि के आगे बढ़ने की कोशिश करना अधिक समझूँगा.

दरअसल

मेरे पास आइना नहीं

पास है सिर्फ

स्पर्श हवा का

और कुछ ध्वनियाँ .. .

सूक्ष्म से कितना एका है ! वाह.  कौन कहता है आज का आकाश थका है ?

स्थूल के प्रति अन्यमनस्कता कितनी आश्वस्ति से अभिव्यक्ति पाती है. ’स्व’ के प्रति और ’स्व’ के लिए बने निम्नलिखित वाक्यांशों के भाव अस्मिता को बचाये रखने की कवायद का एक मायना भी है. कि, जड़ें सूखी ही क्यों न हों पनियायी भूमि की प्रतीक्षा करती ही करती हैं. उसके मिलते ही अँकुरा भरती हैं. यही कामना  तो संघर्ष की मूलशक्ति है.  -

अब मैं पकड़ना चाहता हूँ

हवा को

लेकिन हवा गर्म है

और ध्रुवान्तों की

बर्फ पिघल रही है

नदी में पानी बढ़ रहा

और इस भीड़ में खोया

मैं चिंतित हूँ

अपने उस चेहरे के लिए

जिसे पहचानता नहीं

लेकिन जिसके

पिघलने का खतरा है।

बहुत बढिया, बृजेश भाईजी.  बहुत अच्छॆ.

कुछ व्याकरण-तत्वों को साधे रहिये, खट से लगते हैं. जैसे कि एक उदाहरण लीजिये -

ओस की बूँद में ..  उचित होगा ओस की बूँदों में..

शुभेच्छाएँ

Comment by बृजेश नीरज on August 7, 2013 at 6:56pm

आदरणीय माथुर जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by D P Mathur on August 7, 2013 at 10:49am

आदरणीय ब्रजेश सर , नमस्कार, प्रत्येक मन में अपने वजूद के लिए कभी ना कभी उठे प्रशन आपकी इस प्यारी रचना में सुन्दर ढ़ंग से पिरोये गये हैं आपको बधाई ! 

Comment by बृजेश नीरज on August 6, 2013 at 9:03pm

आदरणीया शुभ्रा जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by बृजेश नीरज on August 6, 2013 at 9:02pm

आदरणीय अरुन भाई हार्दिक आभार!

Comment by बृजेश नीरज on August 6, 2013 at 9:01pm

आदरणीय जितेन्द्र जी आपका आभार!

Comment by बृजेश नीरज on August 6, 2013 at 9:01pm

आदरणीया सरिता जी आपका आभार!

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