पत्थर चुप हैं
वे ज्यादा बोलते नहीं
ज्यादा खामोश रहते हैं
खामोश रहना
जीवन की
सबसे खतरनाक क्रिया होती है
आदमी पत्थर हो जाता है
खामोशी का कोई भेद नहीं
कोई वर्गीकरण नहीं
बस,
दो शब्दों के
उच्चारण के बीच का अन्तराल
जहां कोई ध्वनि नहीं,
दो अक्षरों के बीच की
खाली जगह
जहां कुछ नहीं लिखा;
कोरा
ऐसे ही पत्थर होते हैं
जहां कुछ नहीं होता
वहां पत्थर होता है
कभी तुमने देखा है
ध्यान से
किसी पत्थर को
लोग कहते हैं
पत्थर जड़ होते हैं
तुम पहचानते हो
जड़ कैसी होती है
मैंने पहली बार देखी
जब वह बरगद
उखड़कर गिर गया था
जमीन पर
आंधियों के जोर में
हाँफ रही थी
जड़
सूखी, भूरी काली सी
निर्जीव सी
मुँह बाए
पत्थर ऐसा तो नहीं होता
आँधियाँ में
पत्थर उखड़ते नहीं
प्रतिरोध करते हैं
वह नदी के किनारे
जो पत्थर है
वह तो बिलकुल अलग है
सफेद चमकता
दूध में नहाया सा
रात को जब
पूरा गाँव सो जाता है
वह जागता है,
बतियाता है
चाँदनी से
हवा जब बहती है
तो आती है
उनकी फुसफुसाहट कानों तक
अपने अकेलेपन में
एक ही जगह खड़े-खड़े
चल पड़ता है एक तरफ
धूप के संग-संग
न जाने क्या तलाशने
और फिर
कुछ दूर टहलने के बाद
वापस आ खड़ा होता है
उसी स्थान पर
जब बकरी
चरते-चरते
आ पहुँची थी
घर के करीब
मैंने महसूस किया
उसे मन के अंदर
एक ढेला फेंका था
बकरी की ओर
पत्थर अक्सर ढेला फेंकने पर
मजबूर करता है
लेकिन पत्थर खुद
ढेले जैसा नहीं होता
वह अलग होता है
बिलकुल अलग
यह अलगाव
महसूस करने की बात है
महसूस किए बिना
अन्तर नहीं समझा जा सकता
कभी महसूस किया है
सफर करते समय
बिलकुल सटे खड़े
दो व्यक्तियों में अंतर
हम महसूस ही नहीं कर पाते
इसीलिए रह जाते हैं
बहुत कुछ समझने से
पत्थर को भी
बहुत बार
बकरियाँ और मेमने
पहुँच जाते हैं
उसके आसपास की जमीन पर
चारे की तलाश में
लेकिन वह कुछ नहीं बोलता
भगाता नहीं उन्हें
वह समझता है
पेट की आग
छाँव की तलाश
कितनी चींटियाँ रहती हैं
उस पत्थर के नीचे
दरअसल चींटियाँ
हमसे अधिक समझदार होती हैं
वो जान जाती हैं
मन की बात
झाँक लेती हैं आँखों में
कई बार गर्मियों में
तेज धूप में
मैं गया हूँ
उसके पास
वह बैठ जाता है
धूप की तरफ पीठ कर
और बिठा लेता है मुझे
अपनी गोद में
पत्थर दूसरों की
परेशानी समझता है
वह कठोर नहीं होता
मुलायम होता है
अंदर से
आसपास उगे
घास और जंगली फूलों की तरह।
उसके आसपास
बबूल नहीं होते।
पत्थर
इंसान नहीं होते
भगवान का दूसरा नाम है।
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीया वंदना जी आपका हार्दिक आभार! आदरणीया मैं यह जानता हूं कि कुछ शब्द द्विअर्थी होते हैं। मेरा यह मंतव्य उन दो अर्थों को नजरअंदाज करना बिलकुल भी नहीं है।
आदरणीय सौरभ जी ने जैसा कहा कि जड़ चेतना का विलोमतम बिन्दु है। बिलकुल सत्य है।
मैंने पेड़ की संरचना के दो विपरीत बिन्दुओं पर नजर डाली। मिट्टी के ऊपर का हिस्सा सजीवता का प्रतीक है। पेड़ की फुनगी और उसके विलोमतम बिन्दु पर क्या है-जड़। और वह भी उखड़ जाए तब?
एक सामान्य व्यक्ति से यदि जड़ के बारे में पूछेंगी तो वह यही तो बात करेगा जो मैंने करी है।
रचनायें बतकही का भी अंश होती हैं। बातों में ऐसी बातें भी निकलती हैं और कभी कभी किसी बात तक पहुंचने के लिए भी ऐसी बातें होती हैं।
सादर!
आदरणीय गिरिराज जी आपका हार्दिक आभार!
वाह ! बृजेश नीरज जी ! लाजवाब , बेमिसाल , अति सुन्दर !!
आदरणीया प्राची जी आपका बहुत बहुत आभार!
आदरणीय सौरभ जी आपका हार्दिक आभार! टिप्पणी में आपके इंगितों पर अपने कहन को और साधने का प्रयास करूंगा। आपके सतत मार्गदर्शन की मुझे आवश्यकता है।
सादर!
आदरणीय शरदिंदु जी आपका हार्दिक आभार!
खामोशी के पलों में मन जब विश्लेषण करने लगे यूँ ही बिना कारण... और मन दौड़ पड़े सरपट.. एक एक तह को खोलता स्वीकारता-नकारता उन अन्वेषी पलों में जन्मती हैं ऐसी रचनाएँ जिनमें कोई कृत्रिम बनावट नहीं होती ...सिर्फ हृदय तल से प्रस्फुट सत्य ही होता है ...
हार्दिक बधाई इस वैचारिक दार्शनिक अभिव्यक्ति के लिए
अपने से जब बतियाना होता है, नाटक के पात्रों की तरह स्वतः की छाँव में.. तो कोई बनाव नहीं हुआ करता. ऐसी बातचीत बिना किसी मुखौटे और आवरण के होती है. किससे क्या छिपाना ! इस व्यवहार में नंगापन सत्य के अत्यंत निकट होता है. वह सत्य जो सपाट है. यही कुछ संप्रेषण में भी दिखता है.
आपकी यह रचना,, जो कि वाकई लम्बी है, अपने अनुभवों से बहुत कुछ साझा करने का प्रयास करती है. लेकिन ये अनुभव भी सापेक्ष होते हैं. यही कारण है कि बार-बार अपने हिस्से का सत्य बयान हो पाता है.जैसे ..
ऐसे ही पत्थर होते हैं
जहां कुछ नहीं होता
वहां पत्थर होता है.. . ...
आकाश, चाहे ऐहिक अथवा पारलौकिक . इसके विस्तार में पत्थरत्व नहीं होता. यह पत्थरत्व तो वस्तुतः शून्यता के दुराव का कारण होता है. अनैच्छिक को हटा देना विस्तार का पर्याय है और यही गठन का प्रारूप भी. अन्यथा जड़त्व शिव होता हुआ भी निर्लिप्त होगा. जिसे आकाश की प्रकृति झंकृत कर प्राणवान करती है.
इसी कारण कह रहा हूँ, कि, सत्य अधूरा या भिन्न नहीं होता, बल्कि, उसका प्रकटीकरण अनुभवजन्य होता है.
फिर जड़ एक अवस्था है जो चेतनता के विलोमतम विन्दु पर है. यह पेड़ की जड़ कैसे होगी साहब ? वह जड़ जीवन का मूल है. अतः यह अभिव्यक्ति श्लेष अलंकार की व्युतपत्ति की उठान है.
कविता के कई अन्य बिम्ब बड़े सटीक और संवाद स्थापित करते हुए हैं.
एक गहन रचना के लिए हार्दिक बधाई, बृजेश भाई. ओबीओ पर तमाम बतकहियों के बीच में ऐसी रचनाएँ अब आने लगीं जो तत्त्व की बात करती हैं. सुखद अनुभूति से आप्लावित हो रहा हूँ.
शुभ-शुभ
भाई बृजेश जी, पत्थर मुझे स्वाभाविक कारणों से स्वत: आकर्षित करता है और जब यह आपकी कविता का शीर्षक बन जाता है तो क्या कहने! मेरी आधी से अधिक ज़िंदगी पत्थर से सीधे सम्पर्क में बीती है...उनसे मैंने बातें की है, उनके अंदर मैंने झाँककर देखा है विज्ञान के संदर्भ में और उनके नीचे रेंगती चीटियों से भी घनिष्ठ परिचय हुआ है. लेकिन जो मनोहारी चित्र आपने खींचा है उसकी कलात्मकता अतुलनीय है.
//अपने अकेलेपन में
एक ही जगह खड़े-खड़े
चल पड़ता है एक तरफ
धूप के संग-संग
न जाने क्या तलाशने
और फिर
कुछ दूर टहलने के बाद
वापस आ खड़ा होता है
उसी स्थान पर
// ...............................असाधारण, अद्भुत कल्पना प्रसूत पंक्तियाँ. वाह बृजेश जी!
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