नीरज, बहुत दिन बाद आए
जेठ में भी
बादल दिख गए
पर तुम नहीं दिखे
हमारा साथ कितना पुराना
जब पहली बार मिले थे
तभी लगा था
पिछले जनम का साथ
करम लेखा की तरह
अनचीन्हा नहीं था
तुम्हारे न रहने पर
बहुत अकेला होता हूँ
किसी के पास
समय नहीं
समय क्या
कुछ भी नहीं
दूसरों के लिए
दिन काटे नहीं कटता
तुम नहीं थे
मैं जाता था बतियाने
पेड़ से
तुम्हें याद है न
अपना पुराना साथी
वह पेड़
जो है मैदान के दूसरे छोर
घना
चौड़ा तन
लंबी भुजाएं
गहरी छांव
बिलकुल मेरे पिता जैसा
तुम न थे
उसके संग ही रहता
बहुत बातें की हमने
देश, दुनिया की
मेरी, तुम्हारी
गाँव की
पंचायत की
नदी की
हवा की
जब खाली समय हो
बहुत बातें निकलती हैं
इधर उधर की
दूसरे के फटे कपड़े से
शरीर दिख ही जाता है
सभी को
अबकी पतझड़ में
पत्ते झड़ गए
उस पेड़ के
तुम्हें खबर तो भेजी थी
बुधई से
जा रहा था तुम्हारी तरफ
दोना बनाने को ढाक लेने
कहा था उससे
तुम मिलो तो यह भी बता देना
अबकी आम में
बौर नहीं आए
कटहल भी सूख गया
आंधी आयी थी तो
काफी भूसा उड़ गया
चारा
बाजार से खरीदना होगा
संदेसा न भिजवाता
मैं खुद ही आता
लेकिन क्या करें
नदी का पुल टूट गया
नदी सूखी है
फिर भी
उस पर चलकर
आना नहीं हो सका
एक तो
ऊँचे कगारों से
एक तरफ सम्हलकर उतरना
दूसरी तरफ सम्हलकर चढ़ना
इतनी सम्हाल नहीं होती
हाँफ जाता हूँ
जरा पाँव
ऊँच नीच पड़े
भहराकर गिरने का
खतरा अलग
ऊपर से
रेत पर होकर गुजरना
जानते हो
जेठ में
रेत कितनी तपती है
पैर में छाले पड़ जाते हैं
चला नहीं जाता
कई दिनों तक
गरम पानी से सेंको
तब राहत मिले
अच्छा ही हुआ
मैं नहीं गया
बुधई कह रहा था
तुम मिले नहीं
कहीं गए हो
कहां, किसी को पता नहीं।
तुम जानते हो
मेरे तुम्हारे यहाँ की
दूरी कितनी है
लौटने में
सांझ हो जाती है
मैं जाता
तुम न मिलते
तो रात
बियाबान में काटनी पड़ती
उल्लुओं, चमगादड़ों के साथ
तुम कहाँ गए थे?
यूँ बिना बताए जाना
ठीक नहीं
चिन्ता होती है
और अकेले क्यों गए भला
अकेले जी नहीं ऊबता?
मेरा तो ऊबता है
इधर बहुत लोग
चले गए
रामगोबिन्द
बुधई की महतारी
बहुत लोग
कहां गए
किसी को पता नहीं
जो साथ हैं
उनका अचानक चले जाना
बहुत अखरता है
मन को
वह भूरी बिलार थी न
नहीं दिखती अब
पीपर के पास वाला
करिया कुकुर भी
आजकल नहीं दिख रहा
खिलावन की भैंस भी
एक दिन चरते चरते
निकल गयी कहीं दूर
बहुत परेशान था
बहुत ढूंढा
नहीं मिली
बहुत कुछ बदल गया इधर
कई बाग खेत बन गए
कई खेत में मकान उग आए
हवा ने
इधर आना बंद कर दिया
टहलने को जगह नहीं बची
सरपत बहुत उग आए हैं
बतियाने को भी कोई न था
बबूल रह गए हैं बस
मन ऊबता था बहुत
अच्छा हुआ
तुम लौट आए
हम फिर बैठेंगे
साथ साथ
लेकर ढेर सारी बातें
लइया, चना, गुड़
और हरी मिर्च की चटनी।
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीया प्राची जी आपका हार्दिक आभार!
खूब घुमाया आपने रचना में... मिट्टी से जुड़े दृश्य, कुकुर बिलाव, पगडंडी, पुल, पग झुलसाती रेत, पिता सम पेड़ से बतियाना...
सुन्दर यादों का सफर और अंत में सीधे सादे भोजन की तृप्त करती खुशबू...
कल्पनाओं का संसार... जितना विशाल है, उतनी ही विस्तृत ये अभिव्यक्ति..
सादर बधाई.
आदरणीय सौरभ जी आप तो वैसे भी कविता पढ़कर मन के भाव और रचना का उद्देश्य जान जाते हैं तो भला यह राज आपसे कैसे छिपता! लिखने के बाद मैंने खुद महसूस किया कि बातें कहीं की कहीं पहुंच गयीं।
//मेरे नाम में जो नीरज है वह मेरी पत्नी का नाम है।//
मेरे कहे का इशारा वही था हुज़ूर. आपवाला ’नीरज’ से आखिर भटकने कारण और क्या होता ....... :-)))
तभी तो हमने फिर आगे इशारा किया है कि हम भटक गये. रचना की शुरुआत जिस अंदाज़ में मुलायम यादों को कुरेदने से होती है. आगे रचना उससे इतर हो जाती है. यों, यादें और गप्प आगे भी हैं लेकिन उनके असर की ज़मीन अलग है.
आदरणीय सौरभ जी आपका हार्दिक आभार! मेरे नाम में जो नीरज है वह मेरी पत्नी का नाम है। उन्हीं को संबोधित करके लिखनी शुरू की लेकिन अंतिम रूप में ऐसी बन पायी।
बहुत लोगों की लंबी कवितायें पढ़ी थीं। मन में इच्छा हुई कि एक कोशिश की जाए। उसी का परिणाम है यह रचना।
आपने जो कहा है उसका ध्यान रखूंगा। आगे रचना इससे बेहतर हो ऐसा मेरा प्रयास होगा।
सादर!
बहुत्ते बतियाये. अच्छा किया. सब बह गया. समय सीमा से अधिक हो जाये, फिर भी थक्का बना रहे तो मवाद बन जाने का अंदेसा रहता है.
नीरज को आपवाला ’नीरज’ समझ बैठे, सो आगे भटक गये. फिर ऊपर से शुरु हुए.
बिम्ब वही मगर वाह रे गप्प का अंदाज़ !
दरकते जाने की विवशता को लगातार जीते रहने को आपने क्या ही साधा है !
देर तक डूबते-उतराते रहे हम बिम्बों में. गाँव के बूढ़े पेड़ को पिता सा बताना गहरे तक नम कर गया. तारतम्यता के लगातार बिखरते जाने और एक नई पीढ़ी-परम्परा के बनने का मार्मिक बखान हुआ है.
तनिक सी कसावट वैसे इंगितों को और सार्थक रूप से प्रगाढ़ कर देती कि हृदय को कितनाहूँ पत्थर का बनाये फिरते दिखें हम, लकीरें उग आती इस पत्थर पर ! खैर, यह सब तो हमारीवाली बात है.
इस सफल रचना के लिए दिल से बधाई. भइया, खूब लिखिये.
शुभ-शुभ
आदरणीय अरुन भाई आपका हार्दिक आभार! अपना स्नेह यूं ही बनाए रखिए!
सादर!
आदरणीय बृजेश भाई जी आपकी अतुकांत कविता में भी इतना प्रवाह इतनी गहराई होती है कि मन हिचकोले खा जाता है.
तुम्हें याद है न
अपना पुराना साथी
वह पेड़
जो है मैदान के दूसरे छोर
घना
चौड़ा तन
लंबी भुजाएं
गहरी छांव
बिलकुल मेरे पिता जैसा.... भाई जी इन पंक्तियों का भाव इतना गहरा है कि बड़ी देर तक आगे बढ़ने ही नहीं दिया. ह्रदय से बहुत बहुत बधाई स्वीकारें भाई जी.
आदरणीया कुंती जी आपका हार्दिक आभार! आपके शब्दों ने मेरे प्रयास को सार्थकता दी है।
आदरणीय राम भाई आपका हार्दिक आभार! आपको रचना पसंद आयी मेरा प्रयास सफल हुआ।
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