कितने कितने सूरज चमके
पर अँधियारा शेष रहा
तेरे मेरे मन के अंदर
इक संशय फल फूल रहा।।
सरपत के ढेरों झाड़ उगे
तन छू ले कट जाता है
इन बबूल के काँटों से भी
भीतर तक छिल जाता है
सावन की बौछारों में भी
मन उपवन सब सून रहा।।
तुम मिलते हो मुझको जैसे
इक गुजरी तरुणाई सी
भाव खिलें डाली पर कैसे
वह रूखी मुरझाई सी
साज संवार व्यर्थ रहा सब
धूल भरा यह रूप रहा।।
चिड़ियों ने भी पंख समेटे
हवा हुई अनजानी सी
नदिया की लहरें व्याकुल हैं
मछली कुछ अकुलानी सी
तूफानों के इस मौसम में
दिया द्वार पर जूझ रहा।।
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय सौरभ जी आपका हार्दिक आभार! तुक और गेयता अभी समस्या हैं मेरी रचनाओं में। उनको दूर करने के लिए प्रयासरता हूं। आपने जो राह दिखायी है उस पर चलने का प्रयास करूंगा।
सादर!
बहुत गहरी भावदशा को शब्दसीमा देना जितना कठिन है उतना ही रोचक भी ! आपका प्रयास मोहक भी है और लालित्यपूर्ण भी.
तुम मिलते हो मुझको जैसे
इक गुजरी तरुणाई सी
भाव खिलें डाली पर कैसे
वह रूखी मुरझाई सी
भाई, इस बंद ने तो आपके कहे पर बस नत कर दिया है.
पूरा नवगीत ही पके घाव के बहने का तात्पर्य है. यही संजीवनी भाव है. तभी कवि इस निहुरे हुए वातावरण में आशान्वित होता कह पाता है, दिया द्वार पर जूझ रहा.
वैसे, शब्दों से तुक मिलाने की भी परिपाटी है लेकिन वह बहुत अच्छी नहीं मानी जाती. तुक के शब्द के पहले की मात्राओं या शब्दांश को भी इसका हिस्सा बनाने का प्रयास रखें. यथा,
कितने कितने सूरज चमके
पर अँधियारा शेष रहा
तेरे मेरे मन के अंदर
संशय ही का श्लेष रहा..
कुछ ऐसा. अब आगे सभी तुक इसी तर्ज़ पर हों तो काव्य-प्रस्तुति में गहराई तो है ही शिल्पगत कसावट भी बनेगी.
बहुत बहुत बधाइयाँ, बृजेश भाईजी, इस गंभीर चिंतन के लिए.
शुभेच्छाएँ
//'नवगीत की नव्यता कभी समाप्त नहीं होती'//
जब वीर छंद लिखते हैं तो उसमें अतिशयोक्ति होना आवश्यक माना जाता है। इस वाक्य को मैं उसी रूप में देखता हूं।
गीत नए बिम्बों, भाषा, शैली और छंद रूप लेकर आज नवगीत कहला रहा है।
आदरणीया वंदना जी आपका हार्दिक आभार!
कल का गीत ही अपने नए रंग और रूप के साथ आज का नवगीत है।
आदरणीय विजय जी आपका हार्दिक आभार!
आदरणीय बृजेश जी:
//तुम मिलते हो मुझको जैसे
इक गुजरी तरुणाई सी
भाव खिलें डाली पर कैसे
वह रूखी मुरझाई सी//
अति सुन्दर अभिव्यक्ति ! शत-शत बधाई।
सादर,
विजय निकोर
आदरणीय राणा जी आपका हार्दिक आभार!
मैंने यह गीत गाकर नहीं लिखा इसलिए गलती होना स्वाभाविक था। आपके सुझावों से मैं सहमत हूं। आगे बेहतर कर सकूं, ऐसा प्रयास करूंगा।
सादर!
आदरणीय बृजेश जी सुन्दर गीत के लिए बधाई कबूलिये|
एक दो सुझाव हैं पसंद आये तो रख लीजिये अन्यथा उड़ा दीजिये|
सरपत के ढेरों झाड़ उगे...यहाँ गेयता बाधित है इसे ऐसा करना कैसा रहेगा "झाड उगे सरपत के ढेरों"
साज संवार व्यर्थ रहा सब...यहाँ पर एक मात्रा कम है "व्यर्थ हुआ सब साज, संवरना" कैसा रहेगा|
सादर
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