पर्वत राज हिमालय जिसका मस्तक है
जिसके आगे बड़े बड़े नतमस्तक है
सिन्धु नदी की तट रेखा पर बसा हुआ
गंगा की पावन धारा से सिंचित है
जिसको तुम सोने की चिड़िया कहते थे
छोटे बड़े जहाँ आदर से रहते थे
जहाँ सभी धर्मो को सम्मान मिला
जहाँ कभी न श्याम श्वेत का भेद हुआ
जिसको राम लला की धरती कहते है
गंगा यमुना सरयू जिस पर बहते है
जिस धरती पर श्री कृष्णा ने जन्म लिया
जहाँ प्रभु ने गीता जैसा ज्ञान दिया
जहाँ निरंतर वैदिक मन्त्रों का उच्चारण होता था
जहाँ सदा से हवन यज्ञ वर्षा कर कारण होता था
जिसके चारो धाम दुनिया भर का आकर्षण हो
जिस धरती पर बारह ज्योतिर्लिंगों के दर्शन हो
जिसके ग्रंथो में सारा विज्ञानं था
जिसको नहीं तनिक इस पर अभिमान था
जिसको आर्यावर्त का नाम मिला था जी
विश्वगुरु का भी का सम्मान मिला था जी
किन्तु दशकों गुजर गये मैं मौन हूँ
क्या अब भी परिचय दूँ के मै कौन हूँ
मै अतीत को वर्तमान से समय तुला पर तोल रहा हूँ
मै हूँ राष्ट्रपुरुष भारत, मै कवि के मुख से बोल रहा हूँ
मेरी गरिमा मेरा गौरव तक घायल है
रक्षक के हाथों में चूंडी पैरों में पायल है
मेरी हर बेटी झांसी की रानी थी
त्याग तपस्या की दुनिया दीवानी थी
अब लगता धरती वीरों से खाली है
मेरी नव सन्तति ही लगती जाली है
संसद लगती है मंडी नक्कालो की
नेताओं की जाती है घड़ियालो की
जो जनता को संप्रदाय में बाँट रहे है
मुझको छेत्र वाद के नाते काट रहे है
मेरे कंकर शंकर गंगाजल बिंदु है
मानव नहीं पशु पक्षी तक हिन्दू है
हिंदी मेरे जन जन की निज भाषा है
संस्कृति को जीवित रखने की आशा है
मेरी जनता वैदिकता की अनुयायी थी
धर्म सनातन ने दुनिया अपनाई थी
हिन्दू संस्कृति सब धर्मो का मूल है
मेरी सभ्यता ही सबके अनुकूल है
मेरे ही कारण सब आज सुरक्षित है
वैदिक धरती पर मुस्लिम आरक्षित है
मेरा केवल तुमसे इतना अनुरोध है
हिन्दू विरोध केवल एक आत्म विरोध है
मै अतीत को वर्तमान से समय तुला पर तोल रहा हूँ
मै हूँ राष्ट्रपुरुष भारत, मै कवि के मुख से बोल रहा हूँ
मेरे सिंघासन पर नेता या अभिनेता है
मानवता के मूल्यों का विक्रेता है
जिसको मेरी भाषा तक न आती है
पूरे का पूरा शासन अपराधी है
मेरी सीमाओं में शत्रु घुसते है
सच कहता हूँ दिल में कांटे चुभते है
संविधान क्या राजनीति की दासी है
मेरी आँखे न्याय की अभिलाषी है
ये ना समझो मैंने कुछ न देखा है
मेरे पास हर गलती का लेखा है
तुम प्रतिपल अपराध करोगे
क्या सोचा है बच जाओगे
गंगा नहा कर, दर पर आकर
देवालय में शीश नवाकर बच जाओगे
माफ़ हो गई सारी गलती, भूले कल की
भूल गए केदार नाथ में, महाविनाश की झलकी
मत भूलो मै अन्नदाता दाता हूँ
मत भूलो मै ही विधाता हूँ
मेरे सच्चे पुत्रों ने शीश चढाया है
हिन्दू कुश का ध्वज न झुकने पाया है
किसका साहस मेरे ध्वज को मेरी धरती पर फाड़ दिया
तुम सुन ना सके, मै चीन्खा था , सीने में चाक़ू गाड दिया
मै अतीत को वर्तमान से समय तुला पर तोल रहा हूँ
मै हूँ राष्ट्रपुरुष भारत, मै कवि के मुख से बोल रहा हूँ
मेरी नजरों में सारे अपराधी है
कोई एक नहीं सब के सब दागी है
रिश्वत लेना कोरी भ्रष्टाचारी है
रिश्वत देना भी मुझसे गद्दारी है
हर दिन लुटता चीर यहाँ अबलाओ का
लुटता है योवन जबरन बालाओं का
और सदा बालाएं भी निष्पाप नहीं
होती है घटनाये अपने आप नहीं
अपनी ही गलती विनाश का कारण बन जाती है
भारत के लिए कलंकित उदाहरण बन जाती है
राजनीति का रथ समता पर चलता है
सूरज केवल पूरब से ही निकलता है
कैसे मै विश्वास करूँ केवल सत्ता की गलती है
गलती तो जनमत की है, पांच बरस तक फलती है
लोकतंत्र में राजनीती जनमत की जिम्मेदारी है
अपना नायक चुनने की जनता खुद ही अधिकारी है
भ्रष्टाचार की अग्नि को गर जनता हवा नहीं देगी
तो खानों पर्वत नदियों को कुर्सी पचा नहीं लेगी
जनता और सत्ता में भी फिर समता हो जाएगी
जनता सत्ता से जवाब की अधिकारि हो जाएगी
मै अतीत को वर्तमान से समय तुला पर तोल रहा हूँ
मै हूँ राष्ट्रपुरुष भारत, मै कवि के मुख से बोल रहा हूँ
"मौलिक व अप्रकाशित"
शब्दकार : आदित्य कुमार
Comment
बहुत सुन्दर! आपको हार्दिक बधाई.....................
आपके इस प्रयास पर आपको हार्दिक बधाई!
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