न मौसम बदलता है,
न एहसान चढाता है
न जलता-जलाता,
बस खुद को लुटाता है
समझता है .मेरी व्यथा
जी जान से
मेरी थकान मिटाता है
दुबला जाता कैसे
मेरे गम में
और पाकर मुझे
कुप्पे सा फूल जाता है
चाँद की बात न कर
वह तो हर रात नया रूप
यौवन भरपूर..
मुझे रिझाने में जुटा
उसका यह सिलसिला तो
सदियों से है...
उसके जैसी चाह
उसके जैसी शोखी
और भला किस में है ?
प्रेमियों का प्रेम है
मेरे इस चाँद की बात न कर... !!
(मौलिक व अप्रकाशित )
Comment
आपके स्नेहाभिक्त टिप्पड़ी के लिए आभारी हूँ सर , बहुत-बहुत धन्यवाद, सादर प्रणाम !!
एकाधिकार का उद्घोष तभी संभव है जब उत्कट प्रेम चर्चा बनने लगे. सच है, आत्मीयता में बहुत बल है ! काल से परे जाकर अपने स्व को अभिव्यक्त होते देखना सुखद लगा. इसलिये भी कि आपकी कोई पहली रचना पढ़ रहा हूँ, शायद.
प्रस्तुति अच्छी भी लगी और आशान्वित करती हुई भी है. सादर स्वागत है, आदरणीया.
बहुत-बहुत शुभकामनाएँ.
केतन जी आभार...!!
BAHUT ACHI RACHNA BADHAAI SWEEKARE MAM
विजय सर जी स्नेह के लिए हार्दिक आभार ,प्रणाम !!
शुभ्रा जी ,हार्दिक आभार...धन्यवाद आपको..!!
अरुण जी बहुत बहुत धन्यवाद आपको...!!
विनीता जी स्नेह के लिए आभार , प्रणाम !
आदरणीया वसुंधरा जी:
सुन्दर भाव पिरोए हैं...बधाई।
सादर,
विजय निकोर
वसुंधरा जी बहुत सुन्दर रचना के लिए शुभकामना और बधाई स्वीकार करे
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