दरख़्तों से छुपा-छुपी खेलता हुआ
वो तीखी धूप का एक टुकड़ा
मेरे कमरे तक आने को बेचैन
हवा ज्यों तेज़ हो जाती
वो ताक कर मुझे
वापस लौट जाता
इतना रौशन है वो आज कि
उसके ताकने भर से
अँधेरे से बंद कमरे की
आंखें उसकी चमक से
तुरन्त खुल जाती हैं
बहुत नींद में रहता है कमरा
आंखें मिचमिचाता है
कुछ देर तक यूँही देख
फिर आँखें बंद कर लेता है
हम्म ....मुझे लग रहा है
आज धूप का ये टुकड़ा
बारिश के बाद नहाया हुआ
मस्ती में है इसलिए
खेल रहा है शायद
खेलते रहो....तुम दोनों
मैं भी देखूं
कौन मारता है बाज़ी ....
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
....प्रियंका ''पियू ''
Comment
आदरणीया प्रियंका जी, धूप के इस टुकड़े ने तो टुकड़े हुए मुझमे सम्पूर्णता का अहसास दिला दिया....जिसे देखना है, जानना है, छूना है. सुंदर रचना के लिये अभिनंदन....हाँ, "हम्म" एक ऐसी आधुनिक अभिव्यक्ति है जिसकी आत्मा इस रचना की गम्भीरता से,और इसकी सुंदरता से भी मेल नहीं खाती. शुभकामनाएँ.
धन्यवाद श्याम सर .....
बहुत ही सुन्दर! हार्दिक बधाई आपको
शुक्रिया आपका लक्ष्मन सर जी ....
अरुन जी आपका बहुत - बहुत शुक्रिया....वैसे तो अभी मैं सीख रही हूं....क्या सही - क्या गलत ये तो गुणीजन ही बता सकते हैं...अपने स्तर पर जहां तक मैंने सुना है 'कविता हृदय की भाषा है' यानी की हृदय में आये भावों को एक विशेष बहाव में कह जाना ही कविता है.....अब चूंकि मेरे हृदय में ये 'हम्म' शब्द भाव के साथ आया तो प्रयोग कर दिया....अब ये सही है या गलत मैं नहीं जानती.....!!!
आदरणीय विजय सर बहुत बहुत आभार आपका ....स्नेह बनाये रखे ....
बेहद सुन्दर अभिव्यक्ति प्रियंका जी, किन्तु एक प्रश्न है क्या इस सुन्दर रचना के बीच हम्म जैसे शब्दों का प्रयोग करना ठीक है. खैर प्रस्तुति सुन्दर है इस हेतु हार्दिक बधाई स्वीकारें
कमरे में आती धूप को लक्ष्य कर लिखी सुन्दर भावाभिव्यक्ति | हार्दिक बधाई प्रियंका सिंह जी, सादर
सुन्दर बिम्ब, मोहक भावाभिव्यक्ति...
आपको शत-शत बधाई, आदरणीया प्रियंका जी।
सादर,
विजय निकोर
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