ग़ज़ल :- आदमी हो कि आदमी भी नहीं
तुझसे बर्दाश्त ये खुशी भी नहीं
घाट पर पूजा बंदगी भी नहीं |
जिसने बम फोड़ा उसका मकसद क्या
हम करें माँ की आरती भी नहीं |
स्वस्तिका पूछ रही है मरकर
आदमी हो की आदमी भी नहीं |
फाइलों की सुरंग अंधेरी
हम गरीबों को रोशनी भी नहीं |
बरगदों के लिये है भारत रत्न
और बीरवों को पद्मश्री भी नहीं |
दिल्ली वालों ने रोक ली गंगा
गांव तक पहुँचती नदी भी नहीं |
कहे हमारे पे है सौ इलज़ाम
किये पे उनके एक बदी भी नहीं |
कृष्ण से क्या कहे सुदामा आज
है छिपाने को पोटली भी नहीं |
(चित्र मृत बच्ची स्वस्तिका का और पहले तीन शेर उसी वाराणसी बम कांड से प्रभावित)
Comment
आभारी हूँ आपके शब्द आपकी शुभकामनाएं हैं मेरे संबल !!!
जिसमे आदमियत नहीं वो आदमी भी नहीं,
वो क्या जाने अल्लाह और भगवान् को ,
जिसको आता हो केवल बम की भाषा वो,
इन्शान के पेट से जन्मा वहसी सूअर तो नहीं,
अरुण भाई अच्छी ग़ज़ल कही है आपने, मानवता के मुह पर कालिख पोतती यह घटना थी ....
कृष्ण से क्या कहे सुदामा आज
है छिपाने को पोटली भी नहीं |
यह शे'र बेहतरीन है, बधाई अरुण भाई .....
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