जन्माष्टी के उपलक्ष में निवेदित रचना-
विमुग्ध हो फूल का रसपान कर
ज्यों त्यागते हों भ्रमर !
भाँति तेरे कृष्ण भी,
बंशी सुनाते,
चुरा कर चित्त कुब्जा में रमें
छोड़ दी मेरी खबर ।
पीत पर लहराता है तू भी,
निज मित्र के पट पीत सम,
तू भी काला श्याम सा
कपटी कुचाली प्रीति डोरी तोड़ पल में
मन रिझाता है ।
भृंग की भनक संदेश है क्या?
पर...
गोपियां सुनतीं व्यथा कह उससे,
द्वन्द्व, मन का घटातीं,
प्रेम जो आधार है ।
प्रेम के करतब निराले
शान अद्भुत् और अगणित आयाम हैं ।
प्रेम से ही श्याम कपटी मूढ़ भौंरा
घनश्याम के समान है ।
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*संशोधित
-विन्दु
(मौलिक/अप्रकाशित)
Comment
वंदना जी जय श्री राधे बहुत सुन्दर भाव ...श्याम श्याम हो गया मन ..हमारे विद्वद भ्राता सौरभ जी ने जो वाक्य विन्यास सुझा के रचना का श्रृंगार किया है उस पर ध्यान दीजियेगा ...
आभार
भ्रमर ५
मेरे कहे को अनुमोदित करने के लिए आपका सादर आभार, आदरणीय श्यामजी.
शुभम्
कविता का आधार बहुत संयत होते हुए भी प्रस्तुतीकरण के लिहाज से असंप्रेषणीय हो गयी है.
अतुकान्त कविताओं में भी गठन होता है जिसके प्रति संवेदनशील होना आवश्यक है.
आपकी कविता को पुनः संयोजित करने का प्रयास किया है .. देखियेगा -
विमुग्ध हो फूल का रसपान कर
ज्यों त्यागते हों भ्रमर !
भाँति तेरे कृष्ण भी,
बंशी सुनाते,
चुरा कर चित्त कुब्जा में रमें
छोड़ दी मेरी खबर ।
पीत पर लहराता है तू भी,
निज मित्र के पट पीत सम,
तू भी काला श्याम सा
कपटी कुचाली प्रीति डोरी तोड़ पल में
मन रिझाता है ।
भृंग की भनक संदेश है क्या?
पर...
गोपियां सुनतीं व्यथा कह उससे,
द्वन्द्व, मन का घटातीं,
प्रेम जो आधार है ।
प्रेम के करतब निराले
शान अद्भुत् और अगणित आयाम हैं ।
प्रेम से ही श्याम कपटी मूढ़ भौंरा
घनश्याम के समान है ।
इस रचना के भाव के अनुरूप वाक्यांश नहीं हुआ है. न ही उस अनुरूप शब्द बन पाये हैं. इससे संप्रेषणीयता भी सटीक नहीं बन पायी है. अतुकान्त रचना के वाक्यों का भी विन्यास होता है.
सादर
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