कल का किस को पता है
तुम कहते थे न
"कल का किस को पता है?"
और मैं इस पर हर बार ...
हर बार हँस देती थी,
इतिहास का वह सम्मोहक टुकड़ा
उढ़ते भूरे सफ़ेद बादल-सा
सैकड़ों कल को ले कर बीत गया,
कब आया, कब बूंद-बूंद रीत गया।
असंगत तर्कों के तथ्यों का विश्लेषण करती
सूक्ष्मतम मानसिक वृतियों से भयभीत,
आए-गए अब अपने अकेले में
मैं भी दुरहा दिया करती हूँ...
"कल का किस को पता है?"
ज़िन्दगी के दुराहे पर मध्य-रात्रि के सूने में
मैं असन्तुलित खड़ी शिलामूर्ति
उलझे दर्दीले ख़यालों की लड़ी में
अश्रुपूरित, मुठ्ठी-भर हवा को लिए अंजली में,
छोड़ देती हूँ उसे कुछ तुम्हारी तरह,
मज़ाक-मज़ाक में तुम कह देते थे न ...
"लो मुक्त कर दिया तुमको,"
मुझको तो तुमसे कभी भी मुक्ति की नहीं,
तुम्हारी बाहों के बंधन की ज़रूरत थी,
बंधन कि जिसको केवल तुमसे मिलने पर मुखरित
मेरी झुकी पलकों की झलक ही पहचान सकती थी।
उस एक झलक के पीछे उमड़ता मेरा स्नेह-सागर --
जो लगता था तुम्हें था संबल तुम्हारे लिए,
और मैं उस सागर की हिल्लोलित लहरों में
तुम्हारे संग बीती उस सिर्फ़ एक शाम में जैसे
अपनी सारी अनछुई ज़िन्दगी को जी लेती थी।
अब मैं इस दुराहे पर अकेली खड़ी प्रतीक्षार्थ
ढूँढती हूँ तुम्हारा चेहरा, तुम्हारा हाथ
कि शायद मेरी ज़िन्दगी शोर में भी सुन ले
तुम्हारी बात, तुम्हारी आवाज़, तुम्हारा प्यार,
और तुम्हारी खुली हुई फैली बाहें कह दें मुझसे,
" यह लो मेरा हाथ, चलो मेरे साथ ...
.... कल का किस को पता है !"
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-- विजय निकोर
२३ जून, २०१३
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
//मुझको तो तुमसे कभी भी मुक्ति की नहीं,
तुम्हारी बाहों के बंधन की ज़रूरत थी,
बंधन कि जिसको केवल तुमसे मिलने पर मुखरित
मेरी झुकी पलकों की झलक ही पहचान सकती थी।//
श्रद्धेय विजय जी, सम्बंधों की मनमोहक व्याख्या है आपकी इस रचना में....और इस विधा में आप अद्भुत पारंगत हैं. भाव विह्वल करने वाली रचना से हमें आप्लुत करने के लिए हार्दिक आभार.
आदरणीय विजय भाई , बहुत बेहतरीन भाव अभिव्यक्ति , वाह वाह !! दिली बधाई !!!!
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