फैक्ट्री के आफिस के सामने एक लम्बी सी कार आ कर रुकी और भुवेश बाबू आँखों पर काला चश्मा चढ़ा कर आफिस में अपना काला बैग रख कर वह किसी मीटिग के लिए चले गए, जब वह वापिस आये तो उनके बैग में से किसी ने पचास हजार रूपये निकाल लिए थे। आफिस के सारे कर्मचारियों को पूछताछ के लिए बुलाया गया, सबकी नजरें सफाई कर्मचारी राजू पर टिक गई क्योकि उसे ही भुवेश बाबू के कमरे से बाहर आते हुए देखा गया था। अपनी निगाहें नीची किये हुए राजू के अपना गुनाह कबूल कर लिया और मान लिया कि वह ही चोर है, पुलिस आई और राजू को पकड़ कर जेल ले गई । पास ही के एक अस्पताल में राजू के बीमार कैंसर से पीड़ित बेटे का ईलाज चल रहा था ।
रेखा जोशी
मौलिक एवं अप्रकाशित रचना
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आदरणीय बागी ,इस कथा में समाज का एक विक्षिप्त चेहरा दिखाई दे रहा है ,राजू ने चोरी की और उसे कबूल भी कर लिया ,सजा भी लेने को तैयार हो गया क्योंकि उसके बेटे की जिंदगी इन सब से उपर थी ,सादर
फैक्ट्री के आफिस के सामने एक लम्बी सी कार आ कर रुकी और भुवेश बाबू आँखों पर काला चश्मा चढ़ा कर आफिस में अपना काला बैग रख कर वह किसी मीटिग के लिए चले गए, जब वह वापिस आये तो उनके बैग में से किसी ने पचास हजार रूपये निकाल लिए थे। आफिस के सारे कर्मचारियों को पूछताछ के लिए बुलाया गया, सबकी नजरें सफाई कर्मचारी राजू पर टिक गई क्योकि उसे ही भुवेश बाबू के कमरे से बाहर आते हुए देखा गया था। अपनी निगाहें नीची किये हुए राजू के अपना गुनाह कबूल कर लिया और मान लिया कि वह ही चोर है, पुलिस आई और राजू को पकड़ कर जेल ले गई । पास ही के एक अस्पताल में राजू के बीमार कैंसर से पीड़ित बेटे का ईलाज चल रहा था, पुलिस का शक और पुख्ता हो गया था ।
उधर भुवेश बाबू का बेटा क्लब में दोस्तों के साथ अय्याशी पार्टी कर रहा था, दोस्तों के कुरेदने पर बस इतना ही कहा, "यार बाप का पैसा भी अपना ही होता है, आज सुबह उनके बैग से मैंने …… "
(अब जरा देखें )
लेखिका आखिर क्या सन्देश देना चाहती हैं ? राजू को मज़बूरी मे चोरी करना जायज है !!, चोरी कर गुनाह कुबूल कर लेना उसकी महानता !! चोरी जैसा गुनाह कर लिया तो झूठ बोल नकारने में क्या दिक्कत, अब तो नौकरी भी गई ,तो इलाज तो दूर रोटी पर भी आफत । माफ़ करियेगा आदरणीया किन्तु यह लघुकथा केवल लिखने के लिए लिखी गई है, निहित तत्व कुछ भी नहीं, बैग काला हो या लाल क्या फर्क पड़ता था !
Shubhranshu Pandey जी ,आपकी प्रतिक्रिया का स्वागत है ,लेकिन माफ़ कीजिए आपने कथा के मर्म को समझने की पूरी कोशिश नही की ,अमीर और गरीब के बीच बढ़ते अंतर और जब किसी गरीब की मूलभूत जरूरते भी पूरी न हो पायें तो ऐसे में किसी गरीब का न चाहते हुए भी मजबूरी में गुनाह करना कोई आश्चर्य की बात नही है ,आभार
आदरणीय रेखा जी, इस कथा में पूर्णता की कमी सी लग रही है.ये कथा किसी बडे़ कथा का भाग लग रही है. इस तरह की कथाओं के अनुत्तरित प्रश्नों को एक स्पष्ट आधार की जरुरत है. वो आधार् सम्यक और समीचीन हो .
माफ़ करियेगा ,लेकिन इस कथा के विचार के समर्थन में अपने विचार देने और कानून को टोकरे में डालने या ढोने की बात कहने वाले पाठक पहले ये तो सोच लें कि कहीं ये टोकरा पलट गया तो जिस घर में बैठ कर अभी ये नेट का मजा ले रहे हैं वो सब एक झटके में कोई अपनी मजबूरी बता कर ले के चला गया तो क्या वे ऐसी ही प्रतिक्रिया देंगे ? .. या फिर उनके अर्जन पर अब तो प्रश्न उठाया जा सकता है. मुट्ठियाँ बाँधना और चीखना एक बात और समाज को समझना एक बात... .
सादर.
जितेन्द्र जी ,annapurna bajpai जी ,गिरिराज भंडारी जी ,श्याम जुनेजा जी ,प्रतिक्रिया देने पर आप सभी का हार्दिक आभार ,हमारे देश में अमीर और गरीब के बीच का अंतर बढ़ता जा रहा है जो सच में विचारणीय है ,धन्यवाद
छोटी किन्तु बहुत कुछ सोचने पर विवश करती लघुकथा, हार्दिक बधाई आदरणीया रेखा जी
आ० रेखा जी कुछ मार्मिक किन्तु अधूरे प्रश्नो को छोड़ती आपकी लघु कथा , हार्दिक शुभेच्छाए ।
आदरणीया रेखा जी , आपकी छोटी से कथा बहुत से प्रश्न दिमाग मे छोड़ गई सोचने के लिये !! बधाई !!
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