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चिंगारियाँ

 

बूंद-बूंद टपकती

घबराती  बेचैनी,

बेचैन ख़यालों के भीतरी अहाते --

जहाँ कहीं से आती थी याद तुम्हारी

बंद कर दिए थे उन कमरों के दरवाज़े,

पर समय की धारा-गति कुछ ऐसी

दरवाज़े यह समाप्त नहीं होते,

गहरे में उतर-उतर आती है अकुलाहट

कई दरवाज़ों के पीछे से आती है जब

सुनसान आवाज़, तुम्हारी करुण पुकार,

तुम थी नहीं वहाँ, हाँ मैं था

और था मेरा कांपता आसमान

टूटते तारे-सा गिरने का जिसका भान

हुआ था तुमको, मुझको भी, उस शाम।

 

थी घबराई कोई शून्याकृति कहीं --

या थीं वह तुम्हारी बेचैन आँखें

इस कमरे में उस कमरे में विस्मित-सी,

और मैं इन कमरों को बंद कर न सका।

बुझती रातों में इन खुले हुए दरवाज़ों से,

तिमिर-पथों से आती शिशु-रुदन-सी

सिसकियाँ

दुख की कथाएँ

घूमती हैं हज़ारों चिनगारियों-सी

अब तुम्हारे अभाव का ताप बनी।

चुभती जलती चिनगारियों से घायल

मेरी रातें सतहों की परतों में ढूँढती हैं

तुम्हारी जायज़ शिकायतें

तुम्हारे दुखों के दाग।

-------  

-- विजय निकोर

  (मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by ram shiromani pathak on September 5, 2013 at 8:10pm

भावनाओं की सरिता बहा दी अपने //बहुत ही सुंदर रचना आदरणीय विजय निकोर जी, हार्दिक बधाई आपको //सादर

Comment by annapurna bajpai on September 5, 2013 at 7:30pm

सुंदर , भावपूर्ण प्रस्तुति के लिए बधाई स्वीकारें । आदरणीय निकोर जी । 

Comment by Shyam Narain Verma on September 5, 2013 at 4:30pm

 इस प्रस्तुति हेतु बहुत-बहुत बधाई व शुभकामनाएँ....


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 5, 2013 at 1:41pm

मेरी रातें सतहों की परतों में ढूँढती हैं

तुम्हारी जायज़ शिकायतें

तुम्हारे दुखों के दाग। ------------- आदरणीय विजय भाई , सुन्दर,  भावपूर्ण रचना के लिये बधाई !!

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