“आज गुरूजी कुछ विचलित लग रहे हैं, जाने क्या बात है? उनसे पूछूं, कहीं क्रोधित तो नहीं हो जायेंगे?” मन ही मन सोचते हुए उज्जवल ने एक निश्चय कर लिया कि गुरु रामदास जी से उनकी परेशानी का कारण पूछना है| वो हिम्मत जुटा कर गुरूजी के पास गया और उनसे पूछ लिया कि, “गुरूजी....! आप इस तरह से विचलित क्यों लग रहे हैं? कृपा करके अगर कोई दुःख हो तो अपने इस दास को बताएं|”
गुरूजी ने दुखी स्वर में कहा, “पुत्र, क्या बताऊँ, आजकल प्रतिदिन समाचार पत्रों, टेलीविज़न इत्यादि में किसी ना किसी साधू के बारे जिस तरह की खबरें आ रही हैं, उससे मन बहुत ही विचलित हो रहा है| पता नहीं साधू बुरे कृत्य सच में कर रहे हैं अथवा केवल उनका नाम उछाला जा रहा है.....”
अपनी थूक निगल के फिर वो आगे कहने लगे, “उज्जवल, क्या कोई साधू ह्त्या कर सकता है, व्यापार कर सकता है या किसी का शील भंग कर सकता है? कतई नहीं, और अगर करता है तो वो साधू ही नहीं| कभी भी किसी भी साधू के नाम को लेकर लिख दिया जाता है, और फिर सारे देश के लिए हम सब को बुरा साबित करने का मौका मिल जाता है| मन इसलिए विचलित है, मन करता है कि सब छोड़ कर इस समाज को अच्छी शिक्षा देने के बजाय हिमालय में जाकर प्रभु कीर्तन में खो जाऊं और सारा जीवन इसी में व्यतीत कर दूं|”
उज्जवल अपने गुरूजी के इस दुःख को समझ के स्वयं भी अत्यंत दुखी हो गया, आँखों में नमी आ गयी, गुरूजी के चरण स्पर्श करके बोला, “गुरूजी, आपने शिक्षा दी है कि साधू बाहर से नहीं भीतर से बना जाता है, साधू पूर्ण संयमित मन और बुद्धि से कार्य करता है, वह सज्जन होता है| साधू अगर हंसता है तो सारे संसार के हंसने के बाद, साधू अगर रोता है तो सारी दुनिया के रोने के पहले| साधू समाज में रहते हुए भी विरक्त होता है, उसे सम्पति का मोह नहीं होता, साधू का कार्य है संसार में सज्जनता फैलाना| एक-दो साधुओं की बदनामी हो जाने पर क्या हम सज्जनता समाज को देने की बजाय समाज को छोड़ देंगे| अगर साधू सही है तो जो इनके लिए दुष्प्रचार कर रहे हैं, वो इसका फल भोग लेंगे, उनका बहिष्कार ना कर के हमें उन सब को सच बोलने के लिए प्रेरित करना चाहिए, और अगर नहीं मानें तो उनकी शिकायत करनी चाहिए, क्योंकि अगर समाचार का माध्यम ही झूठ बोलने लगा तो धीरे-धीरे देश का बच्चा-बच्चा झूठ बोलना आरम्भ कर देगा|”
“लेकिन गुरूजी, अगर साधू गलत है तो हमें और समाज को साधू का बहिष्कार करना चाहिए, क्योंकि कुकृत्य करने के बाद वो साधू नहीं रहा| समाज के रक्षक ही अगर समाज के भक्षक बन गए तो उन्हें रोकना भी हमारा कर्तव्य है|”
“और गुरूजी, ऐसा भी हो सकता है कि दोनों ही गलत हों, व्यक्ति (साधू शब्द का प्रयोग नहीं करूंगा) ने कुकृत्य किया हो और समाचार के माध्यम केवल धन कमाने के उद्देश्य से ही उनका कुप्रचार कर रहे हों, सच बोलने के लिए नहीं, यह स्थिति सबसे बदतर है क्योकि यह समाज और देश का भक्षण करना आरम्भ कर देगा| इस समय हमें परिस्थिति से विमुख होकर कहीं और जाने के बजाय समाज और देश के उद्धार के लिए स्वयं को झोंकना चाहिए, हमें सभी तरफ से विरोध मिलेगा, हमें बुरा भला कहा जाएगा, लेकिन अगर हम विजयी हो गए तो समाज और सच के रक्षण में हमारी भागीदारी हो जाएगी| गुरूजी, आपने हमें इसी कर्तव्य की तो शिक्षा दी है|”
गुरु रामदास किंकर्तव्यविमूढ से खड़े थे, उनके मन-मस्तिष्क में अपने शिष्य की बातें गूंज रही थी| उन्होंने शिष्य का हाथ कस कर थाम लिया, और कहा कि, “उज्जवल, पुत्र..... कौन कहता है कि शिष्य गुरु को ज्ञान नहीं दे सकता| आज जो शिक्षा तुमने मुझे दी है, वो समय के परिप्रेक्ष्य में सार्थक है| धर्म की स्थापना और उसके पालन के लिये हमारा कर्तव्य है कि अपने कदम बढ़ाएं... चलो, यह कार्य आरम्भ करें... जल्दी ही समाप्त करना है|”
मौलिक और अप्रकाशित
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आदरणीय अन्नपूर्णा बाजपायी जी, आपका ह्रदय से आभार, आपके इस सत्य को स्वीकारने में कोई दूसरी राय नहीं है कि अन्धानुकरण हमेशा पतन की ओर ही ले जाता है, हमें भेड़ बनने से बचना चाहिए, हमारा व्यक्तित्व है, अन्यथा भेड़त्व होता |
आदरणीय विजयश्री जी, आपका ह्रदय से आभार !
आदरणीय चंद्रेश कुमार जी आपकी कहानी ने अच्छा संदेश दिया है , अंत मे जीत सत्य की होती है । किन्तु सत्य को स्वीकार करना भी आना चाहिए । अंधानुकरण हमेशा पतन की ओर ले जाता है । अतएव हमेशा इससे बचना चाहिए ।
संदेशप्रेरक कहानी
सत्य की जीत होनी ही चाहिए
बधाई स्वीकारें
आदरणीय मित्रों जवाहर लाल जी, गिरिराज जी, मीना पाठक जी, विजय मिश्र जी
आप सभी के इस प्रेम भरे विश्लेषण को पढ़कर अभिभूत हूँ, और ह्रदय से आभारी हूँ| कहानी के मूल में, आसाराम जी कहीं शायद रहे हैं, लेकिन केवल आसाराम जी ही की बात नहीं है, एक छोटा सा सन्देश देना था| आज सारा समाज इस कहानी के गुरु का पात्र अदा कर रहा है, इसमें शिष्य और कोई नहीं हमारी अपनी अंतरात्मा है, जिस दिन देश के हमारे भाई-बहन और हम अपनी अंतरात्मा की बात सुन कर मान लेंगे तो बहुत सारे रास्ते छूट जायेंगे और सच्चाई की राह पर चलने की शक्ति आ जायेगी|
उसी शक्ति को जागृत करना है, हमें हमारी अंतरात्मा का हाथ थाम कर सच के रस्ते पर चलना है| यही सन्देश देने के लिए लिखी है|
आप सभी की राय से पूर्णतया सहमत हूँ, सच को सामने आना ही चाहिए और अपने ऊपर लगे आरोपों का प्रतिकार करना चाहिए|
पुनः आभार आप सबका|
कहानी के लिए बधाई | मैं भी आदरणीय जवाहर लाल जी से सहमत हूँ, आशा राम के ऊपर ना जाने कब से आरोप लग रहे है पर गिरफ्त में वो अब आयें है | साधू-संतों का मै बहुत आदर करती हूँ पर आशाराम मुझे कभी संत लगे ही नही | टैंकरों पानी बहा देना, दिल्ली रेप केस पर उल-जुलूल बयान देना ये किसी संत का काम नही......
सदेश परक अच्छी कहाने के लिये बधाई !! लेकिन मै जवाहर लाल जे से सहमत हूँ, अंततः सत्य की जीत होगी , उन्हे सामने आना चाहिये था खुद ही , दम के साथ!!
गुरु रामदास किंकर्तव्यविमूढ से खड़े थे, उनके मन-मस्तिष्क में अपने शिष्य की बातें गूंज रही थी| उन्होंने शिष्य का हाथ कस कर थाम लिया, और कहा कि, “उज्जवल, पुत्र..... कौन कहता है कि शिष्य गुरु को ज्ञान नहीं दे सकता| आज जो शिक्षा तुमने मुझे दी है, वो समय के परिप्रेक्ष्य में सार्थक है| धर्म की स्थापना और उसके पालन के लिये हमारा कर्तव्य है कि अपने कदम बढ़ाएं... चलो, यह कार्य आरम्भ करें... जल्दी ही समाप्त करना है|”
सुन्दर विचार! पर अगर यह आलेख आशाराम को ध्यान में रख कर लिखा गया है तो मेरे विचार से आश्रम ने गलती की है और संत समाज को बदनाम किया है नहीं तो उन्हें सत्य का सामना करने के लिए स्वमेव सामने आना चाहिए था भागने और छिपने का नाटक करने के बजाय और अब महिला बैद्य की मांग!
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