किसान हीरा की पत्नी घाट से जो मटका भर कर लाती थी, उसमें छोटा सा छेद हो गया था| उस पर हाथ रखते रखते भी पानी ज़मीन पर गिर ही जाता| जैसे तैसे वो पानी लेकर आती थी|
उसने अपने पति से इस बात की शिकायत की कि, अब इस मटके से पानी भरना संभव नहीं है, आप नया मटका ले आओ| हीरा थोड़ा व्यस्त था, जब तक वो नया मटका खरीदता, तब तक पुराने मटके का छेद काफी बढ़ गया और बहुत सारा पानी तो रास्ते में ही गिर जाता|
नया मटका आते ही पुराना मटका हीरा की पत्नी ने बाहर फैंक दिया, वहां काफी कीचड़ थी, उसमें मटका घुल गया| मटके के गिरे हुए पानी ने धरती की शायद थोड़ी सी प्यास बुझाई थी, इसलिये धरती ने अपनी गोद में जगह दे दी...
थोड़ी सी प्यास बुझाने का क़र्ज़ चुकाया....शायद यही अंतर है, प्रकृति और इंसान में !
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
सौरभ पाण्डेय जी सर बहुत शुक्रिया, सही कहा आपने मान्य कहाँ हो पता है, लेकिन ये कलम ही है जो कभी ना कभी मनवा के रहेगी| बस अच्छे लोगो के आशीर्वाद की ज़रुरत है|
अंतर स्पष्ट है लेकिन मान्य कहाँ हो पाता है.
बढिया प्रयास हुआ है.
बधाई
मीना पाठक जी, आपकी बधाई के लिए ह्रदय से आभार
अरुन शर्मा जी, आपका तहे दिल से शुक्रिया
आदरणीय बृजेश नीरज जी, आपका ह्रदय से आभार व्यक्त करता हूँ.
सुन्दर लघुकथा .. हार्दिक बधाई
शिक्षाप्रद लघु कथा बहुत ही सुन्दर हार्दिक बधाई स्वीकारें
अब क्या कहूं। आपके इस सुन्दर प्रयास पर आपको हार्दिक बधाई!
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