उसके लिए कहना कितना आसान था,
सुखों के लिए बिक रहा मेरा ईमान था |
जो दुखों के पंख लगा के घर में आता है,
उसकी खुशामदीद का क्यों अरमान था |
तय की थीं मंज़िलें जिन्होंने दोस्ती की
वो कह गए कि उनका बड़ा एहसान था |
मैनें खोद के देखा इंसानियत की परतों को
ना तो वहां रूह थी और कहाँ इंसान था |
आओ छुपा दें हर ग़म को आखों में ही
सुख को सुखाना कहां इतना आसान था |
( मौलिक और अप्रकाशित )
Comment
चंद्रेश जी ..आपके इस सुंदर प्रयास पर हार्दिक बधायी
Achaa hai sahab
Konsi behr me hai uska matrik kram bhi post kare
आदरणीय चंद्रेश भाई जी प्रयास बहुत सुन्दर है आपका हार्दिक बधाई स्वीकारें.
भाव अच्छे है आपके ह्रदय से सहजता से निस्सृत ..शुभकामनायें !!
सुंदर गजल पर, हार्दिक बधाई आदरणीय चंद्रेश कुमार जी
भाव बहुत अच्छे हैं। आपके इस प्रयास पर आपको हार्दिक बधाई!
मेरा आपसे निवेदन है कि ओबीओ पर मौजूद भारतीय छंद विधान, गजल की बातें समूह के लेखों को पढ़ें।
सादर!
मैनें खोद के देखा इंसानियत की परतों को
ना तो वहां रूह थी और कहाँ इंसान था....वाह के कहने ... बधाई आपको
अच्छे ख़याल हैं पर इस रचना को बहरो वज्न की हांड़ी पर काफी पकना है|
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