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उसके लिए कहना कितना आसान था,

सुखों के लिए बिक रहा मेरा ईमान था |

 

जो दुखों के पंख लगा के घर में आता है,

उसकी खुशामदीद का क्यों अरमान था |

 

तय की थीं मंज़िलें जिन्होंने दोस्ती की

वो कह गए कि उनका बड़ा एहसान था |

 

मैनें खोद के देखा इंसानियत की परतों को

ना तो वहां रूह थी और कहाँ इंसान था |

 

आओ छुपा दें हर ग़म को आखों में ही

सुख को सुखाना कहां इतना आसान था |

( मौलिक और अप्रकाशित )

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Comment by Dr Ashutosh Mishra on August 5, 2013 at 8:49pm

चंद्रेश जी ..आपके इस सुंदर प्रयास पर हार्दिक बधायी 

Comment by विजय मिश्र on August 5, 2013 at 6:20pm
"मैनें खोद के देखा इंसानियत की परतों को
ना तो वहां रूह थी और कहाँ इंसान था |" इस मिसरे के लिए अलग से दाद देता हूँ चंद्रेशजी . निश्चित रूप मन से उपजी रचना है आपकी ,इसे गढन की जरूरत नहीं .
Comment by Ketan Parmar on August 5, 2013 at 12:48pm

Achaa hai sahab

Comment by Ketan Parmar on August 5, 2013 at 12:47pm

Chandresh Kumar Chhatlani

Konsi behr me hai uska matrik kram bhi post kare

Comment by अरुन 'अनन्त' on August 5, 2013 at 11:29am

आदरणीय चंद्रेश भाई जी प्रयास बहुत सुन्दर है आपका हार्दिक बधाई स्वीकारें.

Comment by Abhinav Arun on August 5, 2013 at 5:47am

भाव अच्छे है आपके ह्रदय से सहजता से निस्सृत ..शुभकामनायें !!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on August 4, 2013 at 11:33pm

सुंदर गजल पर, हार्दिक बधाई आदरणीय चंद्रेश कुमार जी

Comment by बृजेश नीरज on August 4, 2013 at 6:46pm

भाव बहुत अच्छे हैं। आपके इस प्रयास पर आपको हार्दिक बधाई!
मेरा आपसे निवेदन है कि ओबीओ पर मौजूद भारतीय छंद विधान, गजल की बातें समूह के लेखों को पढ़ें।
सादर!

Comment by MAHIMA SHREE on August 4, 2013 at 5:38pm

मैनें खोद के देखा इंसानियत की परतों को

ना तो वहां रूह थी और कहाँ इंसान था....वाह के कहने ... बधाई आपको


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Rana Pratap Singh on August 3, 2013 at 11:25pm

अच्छे ख़याल हैं पर इस रचना को बहरो वज्न की हांड़ी पर काफी पकना है|

कृपया ध्यान दे...

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