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उठी जो पलकें तीर दिल के आर-पार हुआ

१२२२     १२१२     १२१२         ११२

उठी जो पलकें तीर दिल के आर-पार हुआ

झुकी जो पलकें फिर से दिल पे कोइ वार हुआ

फकत जिसको मैं मानता रहा बड़ी धड़कन

नजर में जग की हादसा यही तो प्यार हुआ

गुलों को छू लें आरजू जवां हुई दिल में

लगा न हाथ था अभी वो तार –तार हुआ

हसीनों की गली में था बड़ा हँसी मौसम

मगर जो हुस्न को छुआ तो हुस्न खार हुआ

किया जो हमने झुक सलाम हुस्न शरमाया

नजर जो फेरी हमने हुस्न बेक़रार हुआ

सफ़र में जो चला था रूठ अजनबी की तरह

पड़े जो छाले पाँव में तो खुद ही भार हुआ

मौलिक व अप्रकाशित 

 

डॉ आशुतोष मिश्र 

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Comment by Dr Ashutosh Mishra on September 12, 2013 at 4:52pm

आदरनीय गिरिराज जी , आदरणीया परवीन जी हौसला अफजाई के लिए शुक्रिया ..


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 12, 2013 at 10:01am
आदरणीय आशुतोष भाई बढ़िया गज़ल हुई , हार्दिक बधाई !!
Comment by Parveen Malik on September 12, 2013 at 8:20am
बढिया गजल आदरणीय....
Comment by Dr Lalit Kumar Singh on September 12, 2013 at 5:07am

आपकी ग़ज़ल का बहर इस पर आ रहा है-

1212                 1212                 1212        112

उ+ठी+ज+पल   क+ती+र+दिल  क+आ+र+पा  र+हु+आ

झुकी जो पलकें फिर से दिल पे कोइ वार हुआ

1222                 1212                 1212        112 – nahin 

ऐसा करने करने से समस्या का समाधान हो जाता है। ऊपर जो बहर की मात्रा आपने दी है
सिर्फ इसे सही करना है।

Comment by Dr Ashutosh Mishra on September 11, 2013 at 9:54pm

आदरनीय अरुण जी ..आप का सहयोग मुझे निरंतर मिलता है ..आप यूं ही मार्गदर्शन करते रहे ..लगा ही हाथ था अभी वो तार-तार हुआ ...क्या ये सही रहेगा .कृपया मार्गदर्शन करें .सादर धन्यवाद के साथ

Comment by Dr Ashutosh Mishra on September 11, 2013 at 9:51pm

आदरनीय ललित जी आप सभी के मार्गदर्शन की मुझे सदैव जरूरत रहेगी. आपकी बात से मैं सहमत हूँ .गाकर देखने में समस्या स्पष्ट रूप से परिलक्षित हो रही है ..मैंने सिर्फ बहर को मात्र के हिसाब से देखा ..आपकी इस बहर पर प्रयास करूंगा ..कामना करता हूँ की भविष्य में भी आपका आशीर्वाद मुझे हमेशा इसी तरह मिलता रहेगा ..सादर प्रणाम के साथ 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on September 11, 2013 at 9:46pm

आदरनीय राजवीर जी, आदरनीय शिज्जू जी हौसला अफजाई के लिए तहे दिल धन्यवाद ..कामना करता हूँ आप सभी का स्नेह ऐसे ही मिलता रहेगा ..सादर 

Comment by अरुन 'अनन्त' on September 11, 2013 at 8:04pm

आदरणीय प्रयास बहुत ही सुन्दर किया है आपने ग़ज़ल पर आपका प्रयास रंग अवश्य लाएगा प्रयासरत रहें इस ग़ज़ल पर मेरी ओर से बधाई स्वीकारें.

लगा न हाथ था अभी वो तार –तार हुआ ....  मात्रा गणना पुनः कर लें.

Comment by Dr Lalit Kumar Singh on September 11, 2013 at 7:31pm

डॉ साहब, कोशिश तो बेहतर हुई है, लेकिन आपने गा कर शायद नहीं देखा. उला मिसरे में रबानी मन लायक नहीं है.

सानी मिसरा  ठीक चलता है।  .

मैंने आपके लिए एक दूसरा बहर चुना है. शायद पसंद आये –

121  22  121  22  121  22  121  22  

बहरे मुतकारिब मुसम्मन मकबूज असलम / १६ रुकनी

उठी जो पलकें तुम्हारी जानम, ये तीर अन्दर चुभा हुआ है

सभी मुझे बस यही पूछते ये हाल कैसे तेरा हुआ है

गुस्ताखी माफ़. सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on September 11, 2013 at 4:23pm

डॉ आशुतोष सर ग़ज़ल पे अच्छी कोशिश हुई है बधाई स्वीकार करें

कृपया ध्यान दे...

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