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पीने लगे हैं लोग पिलाने लगे हैं लोग
महफ़िल को मयकदों सा सजाने लगे हैं लोग
दिल में नहीं था प्रेम दिखाने लगे हैं लोग
जब भी मिले हैं, हाथ मिलाने लगे हैं लोग
आयी थी रूह बीच में जब भी बुरे थे काम
अब तो सदाये रूह दबाने लगे हैं लोग
कश्ती बचा ली, खुद को डुबो कहते थे मल्हार
खुद को बचा के नाव डुबोने लगे हैं लोग
रखनी जो बात याद किसी को नहीं थी याद
जो भूलना नहीं था भुलाने लगे हैं लोग
कुछ हो, मगर वो प्यार कभी हो नहीं सकता है
करके जिसे निगाह चुराने लगे हैं लोग
तस्वीर अब जमाने की बदली है देखो आशु
अपनी खुशी में सब को रुलाने लगे हैं लोग
डॉ आशुतोष मिश्र
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
अपनी खुशी में सबको रुलाने लगे हैं लोग!! वाह्ह क्या बात कही आदरणीय डॉ साहब। बधाई।
आदरणीय आशुतोष जी मेरे हिसाब से तो यहाँ पर 'मल्लाह' शब्द प्रयोग होना चाहिए. 'मल्हार' तो राग होता है.
आदरणीय विजय सर ..हौसला अफजाई के लिए हार्दिक धन्यवाद ..सादर प्रणाम के साथ
आदरणीय ब्रिजेश जी ..मल्हार को मैंने एक प्रतीक के रूप में प्र्योघ किया है ..देश के कश्ती के खेवन हार .वो तमाम लोग जो देश का प्रतिनिधितव करते थे ...देश के लिए जान भी देने को तैयार रहते थे ..नाविकों को भी ये ही सिखाया जाता था की अपने प्राण जोखिम में डालकर सबी रक्षा करना ..अब इसका उल्टा है .कर्णधार अपनी जान बचाने में लगे है देश से कुछ लेना देना नहीं
वाह...वाह। खूबसूरत गज़ल के लिए बधाई आपको।
सादर,
विजय निकोर
आदरणीय आशुतोष जी यहाँ पर अरूज़ पर चर्चा करना उचित नहीं होगा ... हम रचना पर केंद्रित रहें
मैंने उचित स्थान पर विस्तार से चर्चा किया है ... आपको सन्दर्भ प्रस्तुत कर रहा हूँ -
http://www.openbooksonline.com/group/gazal_ki_bateyn/forum/topics/5...
बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई है. आपको हार्दिक बधाई!
एक जिज्ञासा थी कि 'कहते थे मल्हार' का यहाँ क्या मतलब है?
आदरणीय केवल जी , अरुण जी ....आप सब का प्रोत्साहन ही मुझे कुछ नया लिखने के लिए सतत प्रेरित करता है ..बस यूं ही स्नेह बनाये रखियेगा ..हार्दिक धन्यवाद के साथ
आदरणीय सर बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल कही है आपने बेहद उम्दा बधाई स्वीकारें.
आदरणीय आशुतोष भार्इ जी, सादर प्रणाम! बेहतरीन गजल हुर्इ है। बहुत खूब! ढेरों दाद कुबूल करें। सादर,
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