बह्र : २२१ २१२१ १२२१ २१२
सत्ता की गर हो चाह तो दंगा कराइये
बनना हो बादशाह तो दंगा कराइये
करवा के कत्ल-ए-आम बुझा कर लहू से प्यास
रहना हो बेगुनाह तो दंगा कराइये
कितना चलेगा धर्म का मुद्दा चुनाव में
पानी हो इसकी थाह तो दंगा कराइये
चलते हैं सर झुका के जो उनकी जरा भी गर
उठने लगे निगाह तो दंगा कराइये
प्रियदर्शिनी करें तो उन्हें राजपाट दें
रधिया करे निकाह तो दंगा कराइये
मज़हब की रौशनी में व शासन की छाँव में
करना हो कुछ सियाह तो दंगा कराइये
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
क्या बात ..बहुत सुन्दर ... बधाई
गज़ब गज़ब गज़ब
जिंदाबाद भाई ...
इंकलाबी ग़ज़लें कह रहे है आजकल आप
कहाँ कहाँ से रदीफ़ खोज कर निकाल रहे है भाई ..
एयर ऐसी कठिन जमीं में इस तेवर की ग़ज़ल .... सुभानअल्लाह
एक एक शेर आपकी अपनी विशिष्ठ कहन से लबरेज़ ...
तलवार की धार तेज से और तेज होती जा रही है ...
प्रियदर्शिनी करें तो उन्हें राजपाट दें
रधिया करे निकाह तो दंगा कराइये... हासिले ग़ज़ल शेर .. .
मैं समझता हूँ कि इस शेर से रदीफ़ का उद्येश्य भी पूरा हो गया.
ख़ैर, इस पूरी ग़ज़ल से कुछ और नहीं थकती आँखों से दीखा हुआ मंजर झांक रहा है.
सपाटबयानी भी इतनी सुगढ़ हो सकती है इसका उदाहरण प्रस्तुत करती है आपकी यह ग़ज़ल.
चलते हैं सर झुका के जो उनकी जरा भी गर
उठने लगे निगाह तो दंगा कराइये... ओह क्या कहना है !
बधाई भाईजी बधाई.. .
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