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वज़न -२२१२ २२१२ 

ठगते रहे सब प्यार में!
बिकता रहा बाज़ार में !!

लेने चला मै रौशनी!
पागल सा अन्धे गार में !! 

खुद ही बताता है जखम !
थी धार क्या औज़ार में !!

कैसे नहीं गिरती भला !
थी रेत ही दीवार में !!

कैसे करूँ तारीफ़ मै!
दम ही कहाँ अशआर में !!
****************
राम शिरोमणि पाठक"दीपक"

मौलिक/अप्रकाशित  

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Comment by Abhinav Arun on September 17, 2013 at 5:54am

खुद ही बताता है जखम !
थी धार क्या औज़ार में !!

कैसे नहीं गिरती भला !
थी रेत ही दीवार में !!

कैसे करूँ तारीफ़ मै!
दम ही कहाँ अशआर में !!..अच्छे शेर हुए हैं बधाई दीपक जी ..मतला थोडा साफ़ होता तो मज़ा और बढ़ जाता ...जैसे किसे ठगते रहे कौन बिकता रहा ...ये थोडा क्लियर हो सकता है मशक्कत कीजिये ...साधुवाद !!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on September 17, 2013 at 12:38am

खुद ही बताता है जखम !
थी धार क्या औज़ार में !!........वाह!  क्या कमाल का शेर

कैसे नहीं गिरती भला !
थी रेत ही दीवार में !!..........गजब , बहुत खूब

बहुत बढ़िया गजल , राम भाई बहुत बहुत बधाई आपको

Comment by वीनस केसरी on September 17, 2013 at 12:26am

सुन्दर प्रयास

Comment by Savitri Rathore on September 16, 2013 at 11:25pm

ठगते रहे सब प्यार में!
बिकता रहा बाज़ार में !!

लेने चला मै रौशनी!
पागल सा अन्धे गार में !!
सुन्दर प्रयास हेतु बधाई रामशिरोमणि जी !

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