मैं क्या हूँ
बहुत सोचा
पर सुलझी न गुत्थी
शब्द से पूछा तो वह बोला,
‘मैं ध्वनि हूँ अदृश्य
रूप लेता हूँ
जब उकेरा जाता है
धरातल पर’
पेड़ से पूछा तो बोला
‘मैं हूँ बीज का विस्तार’
‘और बीज क्या है?’
‘वह है मेरा छोटा अंश’
अजब रहस्य
विस्तार का अंश
अंश का विस्तार
खुलती नहीं रहस्य की पर्तें
एक सतत क्रम-
सूक्ष्म के विस्तार
विस्तार के सूक्ष्म होने का;
ध्वनि से शब्द-चित्र
शब्द का प्रतिध्वनित होना;
वाष्प से बूँद
बूँद से जल, नदी, सागर
फिर उनका वाष्पीकरण
चक्र है
पूरा ब्रहमाण्ड,
आकाश गंगा,
सौर मण्डल,
सभी ग्रह
धरती
घूमती है धुरी पर
परिक्रमण में सूर्य के
और इस धरती पर
सभी सजीव, निर्जीव के संग
मैं सदेह
पर देह छूटेगी न
तब
तब मैं ‘मैं’ होऊँगा
या कुछ और
कैसे देखूँगा तुम्हें हँसते
कैसे समझूँगा उदास हो
शायद हो जाऊँ हवा
और हवा के संग
यह धरती, आसमान,
चाँद, तारे, सूरज,
ग्रह, आकाशगंगा
सबको पार करते
पहुँच जाऊँ
सुदूर बहमाण्ड में
या उसके भी आगे
तब शायद समझ पाऊँ
यह सारा रहस्य
लेकिन सुना है
वहाँ तो शून्य है
हवा तो होती नहीं
तो, कैसे जाऊँगा मैं
वहाँ?
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
जी आदरणीय, मुझे आपसे हुई वार्ता का ध्यान है और आपके निर्देशों का पालन करने का प्रयास भी करता हूँ लेकिन कभी-कभी कलम भटक जाती है.
आपकी सकारात्मकता के प्रति हृदयतल से धन्यवाद कह रहा हूँ, भाई बृजेशजी.
हम-आपने इन विन्दुओं पर विशद बातें की हैं. मैं उसी के प्रति इशारा कर रहा था.
शुभ-शुभ
आदरणीय आशीष जी आपका हार्दिक आभार!
सचमुच रहस्यमय है ये 'मैं' का अस्तित्व | आपने इसे चित्रित करने की कोशिश की है और अच्छी रचना हुई है बृजेश जी !
आदरणीय निकोर साहब आपका हार्दिक आभर! आपके शब्दों ने मेरा हौसला बढाया है.
यह दार्शनिक रचना बहुत ही सुन्दर बनी है। बधाई, आदरणीय बृजेश जी।
सादर,
विजय निकोर
आदरणीया मीना जी आपका हार्दिक आभार!
आदरणीय सौरभ जी आपका हार्दिक आभार!
आपने मेरी दुखती राग पर हाथ रख दिया. जहाँ पर मुझे शंका थी उसका निवारण आपने कर दिया. ये आप ही कर भी सकते हैं इसीलिए अपनी रचनाओं पर आपकी टिपण्णी की मुझे सदैव प्रतीक्षा रहती है.
सादर!
आदरणीय संदीप भाई, आपका हार्दिक आभार!
भाई जी आपको यहाँ देखकर बहुत ख़ुशी हुई. अब आपकी कंप्यूटर की समस्या का समाधान हो गया लगता है!
सादर!
आदरणीय वंदना जी आपका हार्दिक आभर! आपके शब्द हमेशा मुझे बल देते हैं.
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