इक हलचल सी चौखट पर
नयनों में हैं स्वप्न भरे
उड़ता-फिरता इक तिनका
पछुआ से संघर्ष रहा
पेड़ों की शाखाओं पर
बाजों का आतंक रहा
तितली के इन पंखों ने
कई सुनहरे रंग भरे
दूर क्षितिज की पलकों पर
इक किरण कुम्हलाई सी
साँझ धरा पर उतरी है
आँचल को ढलकाई सी
गहन तिमिर की गागर में
ढेरों जुगनू आन भरे
इन शब्दों के चित्रों में
दर्द उभर ही आते हैं
जाने क्यूँ पीड़ा से अब
राग छलक ही जाते हैं
इक छोटी सी आशा है
नित रग-रग में प्राण भरे
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय प्रदीप जी आपका हार्दिक आभार!
bahut sundar laybaddh rachna Brijesh ji ... badhai iske liye ... yeh 'Navgeet' kya hai?
आदरणीया प्राची जी आपका हार्दिक आभार!
आपकी टिपण्णी की ही प्रतीक्षा में था मैं.
मैं आपसे सहमत हूँ. तुकांतता साधने का प्रयास कर रहा था लेकिन आपके कहे के अनुसार तुक निर्धारित नहीं कर सका इस रचना में. इसका मुझे भी अफ़सोस है.
आदरणीय बृजेश जी
नवगीत पर आपके सतत प्रयास मुग्ध करते हैं ...बिम्बों के माध्य, से निस्सृत होते भाव सीधे हृदय तक पहुँच पाठक से हामी लेने में सक्षम होते हैं , यही आपकी लेखनी की खासियत भी है
जिस हेतु आपको बारम्बार बहुत बहुत बधाई
अब शिल्प पर... मुझे ऐसा लगता है कि आप यदि तुकांतता पर और सुगढ़ प्रयास करें तो रचनाओं में निखार आएगा
यथा यहाँ .. स्वप्न भरें, रंग भरे, आन भरे, प्राण भरे ............. यदि रेखांकित शब्दों में तुक मिलान किया जाता तो मधुरता बढ़ जाती. ( यह मेरी निजी राय है , आप सहमत/असहमत हो सकते हैं ) :-)))
हार्दिक शुभकामनाएं
आदरणीया परवीन जी आपका हार्दिक आभार!
आदरणीय गिरिराज जी आपका हार्दिक आभार!
आदरणीया अन्नपूर्णा जी आपका हार्दिक आभार!
आ0 बृजेश जी सुंदर मनोभावों को व्यक्त करती आपकी रचना ! इस अनुपम रचना हेतु आपको बहुत बधाई ।
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