ठीक जगह पर देख भाल के बैठा हूँ।
मैं अपनी कुर्सी संभाल के बैठा हूँ।
तीसमारखाँ बहुत बना फिरता था वो ,
मैं उसकी पगड़ी उछाल के बैठा हूँ।
दुष्मन से बदला लेने की खातिर मैं
आस्तीन में साँप पाल के बैठा हूँ।
संसद की गरिमा से क्या लेना-देना ,
संसद में जूता निकाल के बैठा हूँ।
कौन समस्यायें जनता की रोज सुने ,
अपने कान में रूर्इ डाल के बैठा हूँ।
ऐरा गैरा नत्थू खैरा मत समझो ,
सारी दुनिया मैं खंगाल के बैठा हूँ।
मौलिक अप्राकिषत एवं अप्रसारित
Comment
वाह वाह उम्दा गजल
आद्फरणीय अवधेश भाई , राज नीति की वर्तमान परिस्थिति को समेटे , बेहतरीन गज़ल !! बहुत बधाई !!
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