नख-दंत के संसार में गुम
ढूंढता निज मर्म हूँ मैं
ये रूचिर
रूपक तुम्हारे
गुंबजों की
पीढि़यां
दंगों के
फूलों से चटकी
कुछ आरती,
कुछ सीढि़यां
थुथकार की सीली धरा पर
सूखता गुण-धर्म हूँ मैं
रंगों की
थोड़ी समझ है
कृष्ण तक तो
श्वेत था
आह्लाद के
परिपाक में भी
एकसर
समवेत था
युगबोध पर कहता मुझे है
कि नहीं यति-धर्म हूँ मैं
तन ऐंठती
धूसर हवाएं
छीजता
विश्वास है
प्राचीर में
पैबस्त जड़ भी
करती मेरा
उपहास है
किरदार जो आए नए हैं
कहते हैं अपकर्म हूँ मैं
अब कोई
सुनता कहां है
इस पुरा
फ़नकार को
अभ्यस्त हैं
अब यूथ सारे
सीत्कार को
चीत्कार को
चीथड़े वल्कल मेरे अब
जीर्ण सा इक वर्म हूँ मैं
(सर्वथा मौलिक एवं अप्रकाशित)
यति - धर्म : सनातन धर्म के अर्थ में प्रयुक्त
वर्म : घर के अर्थ में प्रयुक्त
Comment
किरदार जो आए नए हैं
कहते हैं अपकर्म हूँ मैं
अब कोई
सुनता कहां है
इस पुरा
फ़नकार को
अभ्यस्त हैं
अब यूथ सारे
सीत्कार को
चीत्कार को
चीथड़े वल्कल मेरे अब................... सुंदर पंक्तियाँ बधाई आपको ।
ये रूचिर
रूपक तुम्हारे
गुंबजों की
पीढि़यां
दंगों के
फूलों से चटकी
कुछ आरती,
कुछ सीढि़यां
थुथकार की सीली धरा पर
सूखता गुण-धर्म हूँ मैं///ज़ोरदार
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति राजेश भाई //हार्दिक बधाई आपको //सादर
चीथड़े वल्कल मेरे अब
जीर्ण सा इक वर्म हूँ मैं..........................बहुत बहुत बधाई
अति सुंदर, भावनात्मक रचना, बधाई स्वीकारे आदरणीय राजेश जी
आदरणीय अरून शर्मा'अनन्त' जी, आपका आभार, जो भी सीख रहा हूं सबके सान्निध्य में ही सीख रहा हूं, सादर
आदरणीय अजय कुमार सिंह जी, आपका हार्दिक आभार
आदरणीय गिरिराज जी, आपकी उपस्थिति से अनुगृहित हुआ, सादर
आदरणीय राजेश भाई आप इस शैली में निपुण हैं बहुत ही सुन्दरता से अपनी बात शब्दों के जरिये कह जाते हैं बेहद सशक्त प्रस्तुति भाई जी बधाई स्वीकारें.
भावपूर्ण कविता के सृजन पर हृदय से बधाई राजेश जी.
आदरणीय राजेश भाई , बहुत ही सुदर रचना हुई है , आपको हार्दिक बधाई !!
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