और एक दिन रामदीन सचमुच मर गया । आदर्श कालोनी में किसी के भी चेहरे पर दुःख का कोई भाव नहीं था । होता भी क्यों ? रामदीन था ही कौन जिसके मर जाने पर उन्हें दुःख होता । रामदीन तो इस कालोनी में रहते हुए भी इस कालोनी का नहीं था । सबके साथ रहते हुए भी वो और उसका छोटा सा परिवार अपनी झोपड़ी में सबसे तनहा रहा करते थे । उसकी मौत से यदि कोई दुखी थे , तो वो थी फागो - रामदीन की घरवाली , उसका एक बच्चा टिल्लू, टिल्लू के बगल में बैठा मरियल कुत्ता मोती और टूटे फूटे खपरों वाला डेढ कमरों का झोपडी जैसा घर । उसकी डेढ़ कमरे की झोपडी में टूटे खपरों और सड़े हुए बांसों के बीच से झांकते बहुत सारे झरोखे बने हुए थे । जिनसे बरसाती पानी एक टूटी खटिया सहित कुल दो मुट्ठी असबाब को भिगोते झर -झर कर कमरों में भरता जा रहा था। जैसे अपने मालिक की मौत से झोपड़ी भी दुखी हो आंसू बहा रहा हो । खपरे की छानही और फागो दोनों रो रहे थे । टिल्लू टुकुर-टुकुर दोनों को देखे जा रहा था । और मोती जो कुछ समझ नहीं पा रहा था ,कभी रामदीन के मृत शरीर के चक्कर लगाता उसे सूंघता और फिर कूँ कूँ करते दूर भाग जाता ।
रामदीन अपने पीछे छोड़ गया - एक अदद मुटियारी सी बीवी करीब ३०-३२ साल की, 4 साल का टिल्लू , कई जगह से पिचके अल्लुमिनियम के कुछ बर्तन,एक टूटी खटिया , जिसपर चिथड़ा बिछा हुआ , सिली हुई कुछ लकड़ियाँ ,मिटटी का चूल्हा, टूटा हुआ दो चक्के वाला सेकण्ड हैण्ड हाथ ठेला , और इन सबको समेटे बिना मरम्मत के 25 सालों में जर्जर हो चुकी झोपड़ी । रामदीन के रिश्ते दारों के बारे में किसीको कोई जानकारी नहीं थी ,क्योंकि पिछले 15 सालों से न तो किसीने उसे किसी रिश्तेदारी में जाते देखा और न किसीको रामदीन के घर आते देखा । इसलिए अड़ोसियों - पड़ोसियों ने किसी तरह चन्दा कर कफ़न दफ़न का इंतजाम कर दिया था । कालोनी के 25 -30 एक मंजिला और दो मंजिला पक्के मकानों के बीच खडी रामदीन की झोपड़ी मखमल में टाट के पैबंद जैसे अलग ही नज़र आ जाती थी । इस कालोनी को शहर वाले " रामदीन की झोपड़ी वाली कालोनी " के नाम से जादा जानते थे । जिससे कालोनी वासियों को काफी शर्मिन्दगी होती । कालोनी की इसी बदनामी के कारण सब रामदीन को " गंवार " "जिद्दी " और " उज्जड्ड " कहकर चिढ़ते थे और उसके मर जाने की कामना करते थे ।
14 साल की उम्र में अनाथ , अपढ़ रामदीन को गाँव के गौंटिया भुवन ठाकुर ने अपने घर में रख लिया था । दिनभर वह घर के छोटे-मोटे काम कर देता ,और रात को जब मालिक थका हुआ खेत से लौटता तो वृद्ध मालिक के दर्द से टीसते पैरों में गरम तेल की मालिश कर दिया करता । जिसके एवज में उसे 2 टाइम का खाना मिल जाया करता और खलिहान के किनारे करीब 2000 फुट जमीन में बनी झोपडी में रहने की जगह । मरते -मरते भुवन ठाकुर ने पटवारी से बोलकर खलिहान में बनी उस जमीन का पट्टा झोपड़ी सहित रामदीन की बरसों निस्वार्थ सेवा के बदले उसके नाम कर खाता अलग करवा दिया ,और उसका ब्याह अनाथ फागो से करवा दिया । पर अब रामदीन बेरोजगार हो गया था , अपढ़ रामदीन को मालिश करने के सिवाय और कोई काम नहीं आता था । इसलिए छोटी- मोटी मजदूरी करता । जिससे अपनी, फागो ,टिल्लू और मोती का पेट भर जाया करता ।
यह गाँव अब शहर में शामिल होने जा रहा था इसलिए अच्छी कीमत मिलने के कारण खलिहान की बाकी जमीन और पीछे बाड़ी की जमीन शहर में बसे ठाकुर के बच्चों ने बाप के मरने के बाद एक सोसाइटी वालों को बेच दिया । उन्होंने रामदीन को बहुत समझाया कि अपनी जमीन बेच दो अच्छा पैसा मिलेगा , तुम्हारी गरीबी दूर हो जाएगी। पर उसने एक ना मानी । अनाज मण्डी में ठेला खीचते और गरीबी सहते हुए भी उस जमीन को ठाकुर की निशानी और आशीर्वाद समझ अपने सीने से चिपकाए रखा ।
रामदीन की मौत को कई महीने बीत चुके थे । धीरे-धीरे कालोनी वालों की नाराजगी भी उस परिवार के प्रति कम होने लगी । फागो कालोनी के घरों में चौका बर्तन करने लगी थी । मेहनती और इमानदार होने के कारण उसे बहुत सारे घरों में काम मिलने लगा । दो जून की रोटी के बाद भी कुछ पैसे बचा लेती थी मितव्ययी फागो। कालोनी के एक दयालू शिक्षक ने फागो को समझा बुझा कर पास के बैंक में उसका खाता खुलवा दिया , जिसमे बचा पैसा वह नियमित रूप से जमा करने लगी । फागो के न-न करने के बावजूद भी उसे समझा बुझाकर कि कुछ पढ़-लिख लेगा तो काम ही आयेगा कहते हुए उसी शिक्षक ने टिल्लू [ तिलक ] का दाखिला पास के सरकारी प्राथमिक शाळा में करवा दिया । फागो की जिंदगी अब फिर पटरी पर आ गयी थी । कभी-कभी उसे रामदीन की याद आती तो मन उदास हो जाता ।
कई साल बीत गए । कितने , याद नहीं । मै काफी बूढा जो हो गया था । याददाश्त कमजोर होने लगी थी । पर एक बार बहुत सालों बाद जब मै आदर्श कालोनी गया तो देखकर धक्का सा लगा । रामदीन की बूढी झोपड़ी अपने स्थान से गायब थी । उसकी जगह एक साफ़ सुथरा छोटा सा नया बना एक मंजिला पक्का मकान खड़ा हुआ था । जिसके सामने आँगन में कई प्रकार के फूल खिले हुए थे । पास जाकर देखा -ऊपर घर का नाम लिखा था " रामदीन निवास "। दीवाल पर एक नेम-प्लेट ठुका हुआ था । जिस पर लिखा हुआ था इंजीनियर " तिलक रामदीन "। मै सुखद आश्चर्य से भर गया । जिज्ञासा वश दीवार में लगी घंटी की बटन दबाने ही वाला था , कि पीछे से ख़ुशी से चीखती सी आवाज आई - मास्टर साहब आप ? पलटकर देखा, ये फागो थी । पास आकर उसने मेरे पैरों पर अपना माथा टिका कर प्रणाम किया और मेरा हाथ पकड़ अन्दर ले गयी । मै चारों ओर नज़र घुमाकर देखने लगा । घर के सब सामान काफी सलीके से सजे हुए थे । सामने दीवार पर रामदीन का धुंधला सा फ्रेम किया फोटो टंगा हुआ था । कौन है माँ कहते हुए अन्दर से एक जवान लड़का बाहर आया । देखकर मै समझ गया कि यही टिल्लू है । सावंला चेहरा बिलकुल अपनी माँ पर गया था । फागो ने उसे पकड़ कर कहा -बेटा इनके पैर पड़कर आशीर्वाद लो। इनकी ही कृपा से आज तुम इंजीनियर हो । टिल्लू मेरे पैरों पर झुक गया । मैंने उठाकर उसे सीने से लगा अपने पास बैठाया और माँ की सेवा करते सुखी रहने का आशीर्वाद दिया ।
चाय पीते-पीते फागो ने बताया कि , मास्टर साहब पाठशाला में टिल्लू का दाखिला कराने के कुछ दिनों बाद आपका किसी दूर शहर में तबादला हो गया । चौका बर्तन के काम में मै इतनी उलझी रही कि आपसे मिल भी नहीं पायी । फिर किसी ने बताया कि आप चले गए हैं । आपके आशीर्वाद से टिल्लू पढने में होशियार निकला । समय कैसे बीत गए मालूम भी नहीं पड़ा । टिल्लू बोर्ड परीक्षा में अव्वल आया । उसका दाखिला इसी शहर के इंजीनियरिंग कालेज में हो गया । समय गुजरता रहा । इंजीनियरिंग के आख़िरी साल की परीक्षा भी टिल्लू अव्वल नंबर से पास किया । शहर के ही सीमेंट फैक्ट्री में पिछले दो साल से इंजीनियर है। रोज सबेरे फैक्ट्री की बस टिल्लू को लेने आती है और शाम को पहुंचाने । ऑटो वाले ,रिक्शे वाले इस कालोनी को अब इंजीनियर तिलक रामदीन वाली कालोनी के नाम से भी जानते हैं । ये सब बताते -बताते फागो की आवाज ख़ुशी और स्वाभिमान से थरथराने लगी थी । फागो को उसकी कठिन तपस्या पूरी होने के लिए बधाई दिया । मेरी आँखें खुशी से गीली हो गयी थी । अपना चश्मा साफ़ करते और ईश्वर को उनकी कृपा के लिए धन्यवाद करते , फागो और " इंजीनियर तिलक रामदीन " से फिर आउंगा का वादा कर उनसे विदा हुआ । सांझ घिरने लगी थी । आसमान की ओर देखा तो लगा जैसे राम दिन का ख़ुशी भरा चेहरा अपनी झोपडी की जगह शान से खड़े हुए पक्के मकान को गर्व से देख रहा है ।
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---- -- मौलिक एवं अप्रकाशित रचना ------
[ कपीश चन्द्र श्रीवास्तव - दुर्ग ]
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