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जिजीविषा - (रवि प्रकाश)

नगरी-नगरी
फूटी गगरी
लेकर पानी
पीना है।
मेरी छानी
गारा-मिट्टी
तेरा आँगन
भीना है।
रेशम-रेशम
तेरा आँचल
मेरा कुर्ता
झीना है।
शैल-शिखर सा
मस्तक तेरा
मेरा बोझिल
सीना है।
दुनिया,तूने
बीच भँवर में
आस-आसरा
छीना है।
अन्धकार में
आँखें फाड़े
जुगनू-जुगनू
बीना है।
खुली हथेली
ख़ाली बर्तन
फिर भी हमको
जीना है।

-मौलिक एवं अप्रकाशित।

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Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on October 7, 2013 at 8:19pm

कविता अच्छी लगी, चंद शब्दों के संयोग से इस खुबसूरत कृति को प्रस्तुत करने पर लेखक बधाई के पात्र हैं, बहुत बहुत बधाई श्री रवि प्रकाश जी । 

Comment by Abhinav Arun on October 7, 2013 at 7:45pm

खुली हथेली
ख़ाली बर्तन
फिर भी हमको
जीना है।.............सुन्दर सशक्त ..इस रचना की गहनता इसके अन्तर्निहित सन्देश के लिए हार्दिक बधाई और साधुवाद !!

Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on October 7, 2013 at 7:21pm

हार्दिक बधाई रविप्रकाशजी , संघर्ष का ही नाम जीवन है। 

Comment by डॉ. अनुराग सैनी on October 7, 2013 at 5:53pm

वाह क्या खूब भाव है ! अति उत्तम , हार्दिक बधाई !

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