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एक शहर
अत्यधिक आधुनिक टापुओ का है
जहाँ गरीवी बहुत बौनी दिखती है
हर गली में अमीरी गुलजार है
वहाँ गरीवो से अप्रत्यासित घ्रणा
अमीरों के अमीरी से बेशुमार प्यार है
वह "ग़ालिब "का शहर प्रेम से कितनी दूर हो गया है
हैवानियत ,दरिन्गीं ,लफ्फाजियो  के लिए मशहूर हो गया है
इस शहर में रहते है भारत के कर्णधार
जिनका प्रिय पेशा है भ्रस्टाचार
ओ किसी भी काम में अपने को शिद्ध पुरुष मानते है
तोप ,प्याज ,अनाज से लेकर चारा तक खाने में माहिर है
मै उनकी गाथा लिखने में असमर्थ हूँ
उनकी गाथा स्वयंभू जग जाहिर है
उनकी परम्परा पुस्तैनी परम्परा का पर्याय है
भारत की पुरातन परम्परा का ह्रास हो रहा है
इनकी परम्पराओ का नित-नूतन विकास हो रहा है
एक प्रश्न हर चौराहे पे खड़े आम -आदमी के आखों में है
कबतक इतिहास के पन्नों  को नोंचेगे ?
उत्तर तो मन- मानष में दफ़न है
जिस पर कई परत लिपटी कफ़न है
उसकी तलास में व्याकुल मन उत्तर दे रहा है
"कि जब- तक हम नहीं सोचेगे , तब तक इतिहास के पन्नो को नोचेगे i i "

मौलिक /अप्रकाशित
 -दिलीप कुमार तिवारी

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Comment by गिरिराज भंडारी on October 9, 2013 at 2:01pm

दिल्ली की वास्तविक छवि से परिचय कराने के लिये शुक्रिया !!! और रचना के लिये बहुत बधाई !!

Comment by Sushil.Joshi on October 9, 2013 at 5:51am

कहा जाता है दिल्ली दिलवालों की है.... लेकिन आपने इसकी जो छवि उकेरी है वही आज की वास्तविकता है..... इस कृति को यहाँ साँझा करने के लिए हार्दिक धन्यवाद आदरणीय दिलीप भाई...

Comment by Abhinav Arun on October 9, 2013 at 5:10am

सब कुछ दुखद है श्री दिलीप जी ... और अब पीर पर्वत सी ..से भी ऊँची हो गई है ...सो मठ और गढ़ तो तोड़ने ही होंगे ..कलम कवच को तोड़ने का प्रयास कर रही है ..इस हेतु आपको साधुवाद !!

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