बादलों से ढँका
नीला नही काला आकाश,
उचाईयों को मापता
उन्मुक्त पंछी,
चट्टान की ओट मे
फाँसने को आतुर बहेलिया,
आहा ! इधर ही आ रहा मूर्ख
फँसेगा, ज़रूर फँसेगा,
ओह ! बच गया,
शायद भांप गया ।
पुनः पेड़ की ओट मे,
वाह ! इधर ही आ रहा दुष्ट
आएगा इस बार
इस तीर की ज़द मे,
उफ्फ ! बच गया
बड़ा चालाक है
खैर, कब तक ।
हरे काले सफेद
रंगो से पुता
आवरण युक्त चेहरा
झाड़ियों के मध्य समाहित
दम साधे बहेलिया,
सनसनाता तीर
आ गिरा ज़मीन पर
शातिर कही का !
बादलों से मुक्त हुआ आकाश
और साथ मे
आवरण विहीन चेहरा भी |
(मौलिक व अप्रकाशित)
पिछला पोस्ट =>लघुकथा : गिफ्ट
Comment
आदरणीय गणेश भाई , आज इस समाज मे ऐसे ही स्वतंत्र घूमते परिन्दों के लिये जाल बिछाये बहेलियों की कोई कमी नही है !!!! रोज़ ही शिकार हो रहे हैं !!! बहुत सुन्दर ढंग से आपने अपनी रचना मे समेटा है इस विषय को !!!! बहुत बहुत बधाई भाई जी !!!!
वाह बागी जी चमत्कृत किया है आपने इस कविता के द्वारा बिलकुल आपकी लघुकथा की ही तरह बांधे रखती है ये कविता पाठक को अंत तक ..सफल सशक्त ..सारगर्भित इस रचना के लिए बहुत बधाई आदरणीय !!
बहुत मार्मिक और सार्थकता बताती हुई रचना
आदरणीय बागी जी हार्दिक बधाई
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