कैसा ये जीवन हुआ, दिन प्रति बढ़े विकार
लोभ, मोह, मद, दंभ भी, नित लेते आकार
नित लेते आकार, स्वार्थ के सर्प अनूठे
बाँट रहे संदेह, नेह के बंधन झूठे
मन में फैली रेह, भाव है ठूंठों जैसा
संवेदन अब शून्य, मूल्य संस्कृति का कैसा
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीया प्राची जी आपका हार्दिक आभार!
'ठूंठों' शब्द के प्रयोग पर मुझे भी संशय निवारण की प्रतीक्षा रहेगी. वैसे मेरा मंतव्य यहाँ ये था की हर भाव ठूंठ के जैसा है, इसीलिए 'ठूंठों' शब्द का प्रयोग किया.
सादर!
आदरणीय बृजेश जी
सुन्दर छन्द रचना हुई है..दोहा अंश तो बेहद सामिक यथार्थ शब्द चित्र प्रस्तुत करता है..
कैसा ये जीवन हुआ, दिन प्रति बढ़े विकार
लोभ, मोह, मद, दंभ भी, नित लेते आकार
नित लेते आकार, स्वार्थ के सर्प अनूठे...........................स्वार्थ के सर्प .....वाह! सुन्दर
बाँट रहे संदेह, नेह के बंधन झूठे
मन में फैली रेह, भाव है ठूंठों जैसा................................भाव के साथ ठूंठों फिर जैसा ....भाव और जैसा तो एक वचन हैं पर ठूंठों बहुवचन शब्द है.. शायद यह व्याकरणीय रूप से अशुद्ध हो.. सुधिजनों से इस संशय का निवारण अपेक्षित है.
संवेदन अब शून्य, मूल्य संस्कृति का कैसा
सादर शुभकामनाएं
आदरणीय सुशील जी आपका हार्दिक आभार! सच कहूं तो इस ओर वास्तव में मेरा ध्यान ही नहीं गया! इस सुझाव हेतु आपका हार्दिक आभार!
बहुत ही सुंदर एवं सार्थक छंद है आ0 बृजेश जी..... बस मुझे लगता है कि दोहे के द्वितीय चरण में 'दिन प्रति' के क्रम की अदला बदली कर क्रमश: 'प्रति दिन' कर दिया जाए तो और अधिक लयबद्ध हो जाएगा.... वैसे यह मेरा निजी विचार है.....
कैसा ये जीवन हुआ, प्रति दिन बढ़े विकार।
लोभ, मोह, मद, दंभ भी, नित लेते आकार।। ........
आदरणीया कुंती जी आपका हार्दिक आभार!
आदरणीय राम भाई आपको दो बार बहुत बहुत धन्यवाद!
वाह वाह बहुत ही सुन्दर कुण्डलियाँ छंद आदरणीय भाई ब्रिजेश जी //हार्दिक बधाई आपको
आदरणीय बृजेश भाई,बहुत सुन्दर कुंडलिया //बहुत बधाई आपको
मन में फैली रेह, भाव है ठूंठों जैसा
संवेदन अब शून्य, मूल्य संस्कृति का कैसा.....बहुत सुंदर एवम सटीक.बृजेश जी.शुभकामनाएँ सहित
कुंती.
आदरणीय अनुराग जी आपका हार्दिक आभार!
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