बह्र : फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन
मेरे संगदिल में रहा चाहती है
वो पगली बुतों में ख़ुदा चाहती है
सदा सच कहूँ वायदा चाहती है
वो शौहर नहीं आइना चाहती है
उतारू है करने पे सारी ख़ताएँ
नज़र उम्र भर की सजा चाहती है
बुझाने क्यूँ लगती है लौ कौन जाने
चरागों को जब जब हवा चाहती है
न दो दिल के बदले में दिल, बुद्धि कहती
मुई इश्क में भी नफ़ा चाहती है
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
बहुत बहुत शुक्रिया Neeraj Mishra "प्रेम"जी
बहुत बहुत धन्यवाद Saurabh Pandey जी। क्यूँ को गिराकर पढ़ा जा सकता है। कई जगह मैंने पढ़ा है। उदाहरण के लिए गुलज़ार साहब की ये ग़ज़ल दे रहा हूँ।
बह्र : २२१२ १२११ २२१२ १२
आँखों में जल रहा है क्यूँ बुझता नहीं धुआँ
उठता तो है घटा-सा बरसता नहीं धुआँ
चूल्हे नहीं जलाये या बस्ती ही जल गई
कुछ रोज़ हो गये हैं अब उठता नहीं धुआँ
आँखों के पोंछने से लगा आँच का पता
यूँ चेहरा फेर लेने से छुपता नहीं धुआँ
आँखों से आँसुओं के मरासिम पुराने हैं
मेहमाँ ये घर में आयें तो चुभता नहीं धुआँ
बहुत बहुत धन्यवाद रमेश कुमार चौहान जी
बहुत बहुत धन्यवाद Nilesh Shevgaonkar जी
VISHAAL CHARCHCHIT जी, बहुत बहुत शुक्रिया जनाब
बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय vijay nikore जी
बहुत बहुत धन्यवाद Sushil.Joshi जी
बहुत बहुत धन्यवाद जितेन्द्र 'गीत' जी
बहुत बहुत शुक्रिया ram shiromani pathak जी
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