बह्र : २१२ २१२ २१२ २१२
सूखते नल के आँसू टपकने लगे
देख छागल के आँसू टपकने लगे
भूख से चूक पत्थर गिरे याँ वहाँ
देखकर फल के आँसू टपकने लगे
था हवा की नज़र में तो बरसा नहीं
किंतु बादल के आँसू टपकने लगे
आइने ने कहा कुछ नहीं इसलिए
रात काजल के आँसू टपकने लगे
घास कुहरे से शब भर निहत्थे लड़ी
देख जंगल के आँसू टपकने लगे
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय धर्मेन्द्रजी, श्रीमद्भग्वद्गीता में भगवान् कहते हैं न ..
निर्ममो निरंहकारः स शान्तिम् अधिगच्छति.. .
शुभ-शुभ
नीलेश जी, राम शिरोमणि जी, अरुण जी, सुशील जी, शिज्जू जी, अनन्त जी, गिरिराज जी, उमेश जी, राजेश कुमारी जी, गोपाल नारायण जी एवं अन्नपूर्णा जी, ग़ज़ल पसंद करने के लिए आप सभी का आभारी हूँ
आदरणीय सौरभ जी, आपकी बेबाक राय के लिए तह-ए-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ। भविष्य में भी आपसे इसी निर्मम स्नेह की अपेक्षा रहेगी।
भाई जी .. रदीफ़ जो लिया उसके लिए तो वाह वाह !
लेकिन जो कुछ हुआ या हो पाया है, उसपर.. आँसू टपकने लगे. .. बुरा न मानियेगा. .. .
जय हो..
वाह वाह .. क्या ख़ूब ग़ज़ल कही है ... ढेरों बधाईयाँ
आदरणीय धर्मेन्द्र जी,सुन्दर गज़ल के लिये बधाई.............
आदरणीय धर्मेन्द्र जी, हमेशा की तरह खूबसूरत ग़ज़ल सुनाने के लिए आभार................
इस शानदार प्रस्तुति हेतु बहुत बहुत बधाई आ0 धर्मेन्द्र जी.....
बहुत बढ़िया आदरणीय धर्मेन्द्र जी बधाई स्वीकार करें
वाह वाह आदरणीय क्या कहने लाजवाब बेहतरीन ग़ज़ल ढेरों बधाइयाँ स्वीकारें
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