बह्र : २२१२ २२१२ २२१२ २२१२
जब से हुई मेरे हृदय की संगिनी मेरी कलम
हर पंक्ति में लिखने लगी आम आदमी मेरी कलम
जब से उलझ बैठी हैं उसकी ओढ़नी, मेरी कलम
करने लगी है रोज दिल में गुदगुदी मेरी कलम
कुछ बात सच्चाई में है वरना बताओ क्यों भला
दिन रात होती जा रही है साहसी मेरी कलम
यूँ ही गले मिल के हैलो क्या कह गई पागल हवा
तब से न जाने क्यूँ हुई है बावरी मेरी कलम
उठती नहीं जब भी किसी का चाहता हूँ मैं बुरा
क्या खत्म करने पर तुली है अफ़सरी, मेरी कलम
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
Saurabh Pandey जी, बहुत बहुत शुक्रिया जनाब। स्नेह बना रहा
Dr.Prachi Singh जी, बहुत बहुत धन्यवाद
annapurna bajpai जी, बहुत बहुत धन्यवाद
एक अच्छी ग़ज़ल साझा करने क लिए हार्दिक धन्यवाद, आदणीय धर्मेन्द्रजी.
यूँ ही गले मिल के हैलो क्या कह गई पागल हवा
तब से न जाने क्यूँ हुई है बावरी मेरी कलम............ वाह साहब, क्या बात है !
’अफ़सरी’ वाले शेर का तंज़ मज़ेदार लगा. बहुत अच्छे.
शुभकामनाएँ और बधाइयाँ
कुछ बात सच्चाई में है वरना बताओ क्यों भला
दिन रात होती जा रही है साहसी मेरी कलम.....बहुत खूब
बहुत सुन्दर ग़ज़ल कही है आ० धर्मेन्द्र जी
हार्दिक बधाई
कुछ बात सच्चाई में है वरना बताओ क्यों भला
दिन रात होती जा रही है साहसी मेरी कलम............................. सुंदर पंक्तियाँ , बधाई आपको ।
rajesh kumari जी, बहुत बहुत शुक्रिया मोहतरमा
अरुन शर्मा 'अनन्त' जी, बहुत बहुत शुक्रिया जनाब
गिरिराज भंडारी जी, बहुत बहुत शुक्रिया जनाब
वीनस केसरी जी, भाई शुक्रगुजार हूँ।
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