माते ! मैं ही रहा अभागा
जो तुझको सुख दे न सका
पावन तेरी चरण-धूलि तक
अपने हित संजो न सका
भर नथुनों में अमर गंध तू
ठाकुर का मेहमान हुई
सित फूलों की उस घाटी में
अमर ब्रह्म मुदमान हुई
औ तेरा यह पारिजात मां
गलित गात, क्षत शाख हुआ
खेद-स्वेद के तीक्ष्ण धार से
गलता-जलता राख हुआ
करूणे ! तेरा वृथा पुत्र यह
तेरी रातें धो न सका
धन,बल,वैभव खूब सहेजा
पर तुझको संजो न सका
मेरा पाप वह मुझे परखता
विधि वाम क्या रोष करूं
दग्ध प्राण के इस विलाप पर
हा ! कैसे संतोष करूं
पतित छन्द मैं रहा नम्यते
भाव दूब तक बो न सका
सुखदे , तेरे मलयांचल में
छुपकर भी तो रो न सका
हो क्षुब्ध, देह यह छोड़ सकूं
इसका भी अधिकार कहां ?
देव करो अब वज्रपात ही
हुआ असह धिक्कार यहां
जो बोया कल, आज मिला मां
दंभ मेरा मैं खो न सका
कौन मेरा विश्वास करेगा
तेरा ही जब हो न सका
(पूर्णत: मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय राम शिरोमणि जी, जितेन्द्र 'गीत' जी, विजय निकोर जी, एवं अखिलेश जी, आप सबका हार्दिक आभार
माते ! मैं ही रहा अभागा
जो तुझको सुख दे न सका
पावन तेरी चरण-धूलि तक
अपने हित संजो न सका///अनुपम
आदरणीय भाई राजेश जी ,भाव रुपी सरिता व् उत्कृष्ट रचना के लिए बहुत बहुत बधाई///सादर
माँ से बढ़कर कोई नही, माँ के चरण कमल में समर्पित, सुंदर रचना पर बधाई स्वीकारें आदरणीय राजेश जी
कुछ भी हो माँ सदैव आशीर्वाद ही देंगी.....
माँ के पति इतनी सुन्दर रचना के लिए बधाई।
मां के प्रति अपने दायित्वों का निर्वाह न कर पाने का पश्चाताप लिये एक बहुत ही भावुक सी उत्कृष्ट रचना के लिये साधुवाद....वैसे गिरिराज सर की बात से मैं सहमत हूं कि भाई इस रचना का शीर्षक 'शोक गीत' न रखें.......एक और बात भाई......
// भर नथुनों में अमर गंध तू
ठाकुर का मेहमान हुई //
ये जरा देखियेगा..... मेरे हिसाब से "ठाकुर की मेहमान हुई" होना चाहिये.......!!!!
आदरणीय राजेश भाई , आंतरिक पछतावा से उपजी वेदाना का बहुत ही मार्मिक वर्णन किया है आपने !!! ऐसे सच्चे पछतावा के भाव के बाद गलती स्वयं धुल जाती है !!!!! आपको इस गीत के लिये तहे दिल से बधाई !!!
विशेष ----- कृपा कर इस गीत का नाम शोक गीत न रखें , ये शोक के समय मे गाया जाने वाला गीत नही है भाई , इसके भाव तो हर पुत्र को हर समय मन मे रखने वाले भाव हैं , क्यों कि माँ का कर्ज़ तो कोई चुका ही नही सकता , फिर ये भाव आना तो शुभ है !!!!
मेरे विचार से शीर्षक बदलना उचित होगा !!!! आपको पुनः बधाई !!!!
माँ अपने उपकार के बदले बच्चों से कुछ नहीं चाहती इसलिए उसकी तुलना धरती माँ से की जाती है। विशाल हृदय माँ बस दुवा ही करना जानती है । हम विचलित और दुखी हुए तो माँ जहाँ भी जिस लोक में होगी असहज और उदास रहेगी। पश्चयाताप के आँसू बहाने के अतिरिक्त भी अपनी हैसियत के अनुसार माँ के नाम पर बहुत कुछ किया जा सकता हैं ।
आपकी वेदना हम सबकी वेदना है माँ के जीवित रहते माँ को कोई नहीं समझ पाता आज की पीढ़ी तो बिलकुल भी नहीं , वह तो अपने में ही मस्त है। भावपूर्ण रचना की बधाई राजेश भाई।
//यकीं मानिए कवि की माँ उससे सहानुभूति रख आशीवाद ही दे रही होगी//
प्रभु आपके इन वचनों को यदि सुन रहें हैं तो निश्चित ही ऐसा ही होगा । आपकी अनमोल प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार, सादर
बहुत सुन्दर भाव रचित गीत रचना द्वारा अंतस में उठती ठीस को प्रस्तुत किया है आपने |इसे मै शोक गीत न कहकर अंतस की वेदना का गीत कहना पसंद करूंगा भाई श्री राजेश म्रदु जी | अपने आप में पश्च्याताप करता मनुज जब अपने आपको धिक्कारता
है तभी कवि मन कह रहा रहा है अपनी माँ को -
कौन मेरा विश्वास करेगा
तेरा ही जब हो न सका | - यकीं मानिए कवि की माँ उससे सहानुभूति रख आशीवाद ही दे रही होगी | सुन्दर भाव रचना के लिए ढेरों बधाइयां श्री राजेश "म्रदु" जी
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