मधुमति,
मेरे पदचिन्हों को
पी लेता है
मेरा कल
और मेरे
प्राची पनघट पर
उग आते
निष्ठुर दलदल
ऐसे में किस स्वप्नत्रयी की
बात करूं मेरे मादल ?
वसुमति,
मेरे जिन रूपों को
जीता है
मेरा शतदल
उस प्रभास के
अरूण हास पर
मल जाता
कोई काजल
ऐसे में किस स्वप्नत्रयी की
बात करूं मेरे मादल ?
द्युमति,
मेरे तेज अर्क में
घुल जाता जब
मेरा छल
और वहीं कुछ
शापित बादल
नित गढ़ते
नव बड़वानल
ऐसे में किस स्वप्नत्रयी की
बात करूं मेरे मादल ?
पर दे
स्वर दे
धीर नेह, नय
कांत अक्ष
अब दे साजल
सित उजास दे
थिर हुलास दे
या कह दे
इतना इसपल
किस विध ऐसे दिशाकाश में
विचरूं खुलकर ओ मादल ?
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय सुशील जी, आपका हार्दिक आभार, सादर
आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी, आपको रचना पसंद आई इस हेतु आभारी हूं एवं काफी देर से प्रत्युत्तर हेतु क्षमा प्रार्थी हूं, मैंने जिस स्वप्नत्रयी की बात की है वो परमसत्ता के तीन स्वप्न हैं जिनसे आत्मसत्ता साक्षात्कार करना चाहती है पर कर नहीं पाती, सादर
वाह... बेहद सुंदर गीत है आ0 राजेश जी...... सुंदर शब्द चयन कर उन्हें बेहतरीन ढंग से गीत की माला में पिरोए हैं आपने.... हार्दिक बधाई...
aap apne swapntryee ko man mein hi rakhe rahe. pathak bhi aapke teen sapno ko janna chahte hain. Shayad hamare aapke sapno mein koi samya ho. aapka bhav aur shabd chayan dono hi sundar ha..
आपकी सबकी उपस्थिति एवं सरस अभिव्यक्ति हेतु हार्दिक आभार
वाह्ह्ह्हह मन आनंदित हो उठा ये मधुर भाव,शैली शब्दों की विशिष्ठता का सम्मिश्रण देखकर बेहद शानदार गीत लिखा है राजेश मृदु जी बहुत बहुत बधाई
आपकी रचना पढ़ कर आनन्द आया। बधाई।
क्या ही सुंदर रचना है बधाई आपको आ0 राजेश मृदु जी ।
वाह! बहुत सुन्दर! आपको हार्दिक बधाई!
आदरणीय राजेश भाई , बहुत सुन्दर भावों पूर्ण , सुन्दर शब्द संयोजन, बहुत सुन्दर गीत के लिये आपको बधाई !!!!!!
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