१२२२ १२२२ १२२२ १२२२ (बह्र--हजज मुसम्मन सालिम)
ज़रा बरसात हो जाती हिमालय भी निखर जाता
बदन फिर से दमक जाता ज़रा पैकर निथर जाता
परिंदा लौट के आता शज़र के सूखते आँसू
जरा सा साथ तुम देते ज़रा वो भी ठहर जाता
बड़ी उम्मीद थी उसको यहाँ कुछ कर दिखाने की
अगर तुम होंसला देते उफ़ुक उसका सँवर जाता
खड़ा चौखट पे रहता था सदा तेरी हिफ़ाजत को
कसम से आसरा देते नसीब उसका सुधर जाता
भला हो ऐ ख़ुदा तेरा जो तूने राह दिखलाई
भटक कर जिंदगी में आज वो जाने किधर जाता
निगाहें उन चरागों की ख़ुदा हम पे भी पड़ जाती
हथेली पर जला लेते सहर अपना उभर जाता
सिसकती कश्तियाँ जो दर्द ये उसको सुना देती
समंदर आज खुद अपने बढ़े कद से उतर जाता
खफ़ा होता बहुत चन्दा फ़ुसूँ उसका बिखर जाता
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*संशोधित
उफ़ुक=क्षितिज़
पैकर=मुखड़ा
सहर =जादू
फ़ुसूँ=जादू मन्त्र मुग्ध
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
बहुत ही सुन्दर! हार्दिक बधाई आपको! |
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