श्वेत वसना दुग्ध सी, मन मुग्ध करती चंद्रिका।
तन सितारों से सजाकर, भू पे उतरी चंद्रिका।
चाँद ने जब बुर्ज से, झाँका भुवन की झील में,
झिलमिलाती साथ आई, सर्द सजनी चंद्रिका।
पात झूमें, पुष्प हरषे, रात ने अंगड़ाई ली,
पाश में ले हर कली को, चूम चहकी चंद्रिका।
घन घनेरे, आसमाँ से, छोड़ डेरा छिप गए,
जब धरा पर शीत बदली, बन के बरसी चंद्रिका।
पर्वतों से, वादियों से, पाख भर मिलती रही,
सागरों की हर लहर से, खूब खेली चंद्रिका।
प्राणियों में प्रेम बोया, हर किरण से सींचकर,
प्रेमियों सँग गुनगुनाई, रात रानी चंद्रिका।
हर कलम की बन ग़ज़ल, शब भर सफर करती रही,
शबनमी प्रातः में चल दी, भाव भीगी चंद्रिका।
मौलिक व अप्रकाशित
कल्पना रामानी
Comment
अदरणीया मीना जी, हार्दिक धन्यवाद
क्या बात है दी ... आनंद आ गया .. मन झूम उठा पढ़ के | सादर बधाई आप को
आदरणीय सौरभ जी, नौका विहार!!! आहा, आपने तो एक दूसरे ही लोक में पहुँचा दिया । काश, आपकी मधुर आवाज़ का मैं भी आनंद ले पाती! जब से आपकी टिप्पणी पढ़ी है कल्पनालोक में खो गई हूँ, और मन गुनगुनाए जा रहा है। खैर...
रचना पर आने और सराहने के लिए आपका हार्दिक आभार
सादर
वाह वाह वाह !
प्रकृति-सुषमा का मनोरम पहलू गदरायी चाँदनी रात, निरभ्र वातावरण एवं मंथर-मंथर होता हुआ नौका-विहार ! ..
आपकी ग़ज़ल ने भिगो दिया, आदरणीया ! हम सिक्त-सिक्त दुर्निवार स-सुर क्या हुए.. बस होते चले गये.. ओ माँझी रेऽऽऽऽऽऽऽ... ...
:-)))))
सादर
हार्दिक धन्यवाद सरिता जी
वाह दी ,कमाल
मैं शीत बदली को शीत का बदलना समझ रहा था, अब समझ गया, आभार आपका
आदरणीय आशीष जी, हार्दिक धन्यवाद
आदरणीया राजेश जी, आपका हृदय से धन्यवाद
राजेश जी, पंक्ति का भावार्थ तो बिलकुल स्पष्ट है-बादल होंगे तो चाँद कहाँ होगा? चाँद के होने से चाँदनी(शीत बदली)धरा पर बरसी और उसे देखकर बादल छिप गए। विस्तार से कहें तो- घने बादल थे लेकिन चाँद भी तो वहीं होता है ना? जब चाँद बादलों की ओट से बाहर निकला और चाँदनी शीत बदली बनकर बरसी (शीतलता चाँदनी का गुण है)तो बादल छिप गए। और पूरा चाँद(यह उजले पाख का वर्णन है)रह गया। अगर सचमुच स्पष्ट कर सकी हूँ तो बताइये। पसंद करने के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद। सादर
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